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________________ प्रकरण-२ : जैन धर्म की स्थिति एवं खरतरगच्छ का उद्भव और विकास चैत्यवासः जैन संस्कृति में त्याग का स्थान महत्त्वपूर्ण माना गया है। भगवान महावीर के समय श्रमण-संघ तो समग्ररूपेण आचार एवं विचारनिष्ठ था। श्रमण का जीवन पूर्ण स्वावलंबन का प्रतीक है। वह स्वजीवन के लिये भी परपीड़न में पाप मानता है, सीमित आवश्यकताओं से ही जीवन यापन करना जानता है। श्रमण अपने ज्ञानबल-योगबल, चारित्रबल से आत्मोत्थान करते हैं। जैन मुनियों का आचार-विचार संसार के लिए एक महान आदर्श रहा है , जो सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य पर निर्भर रहता है। परन्तु संसार परिवर्तनशील है, परिवर्तनशीलता ही विश्व का चिरस्थायी सिद्धांत काल के दुष्प्रभाव से मध्यकाल में शिथिलता की महामारी से अनेक श्रमण ग्रसित हो गये । श्रमण धर्म का परिपालन न करने के कारण जैन मुनियों में शिथिलता बढने लगी। उस समय में जैन यतियों की चैत्यवास प्रथा प्रचलित हो चुकी थी, अर्थात् उस समय श्वेताम्बर समुदाय के यति-लोग जिन-मंदिरों में रहना प्रारम्भ कर चुके थे। उस परिस्थिति में जीनेवाले मुनिजन को चैत्यवासी कहा जाता है । इस चैत्यवासी परम्परा का अस्तित्व कई सदियों तक रहा। इसका प्रभाव आकस्मिक न हो कर अनुक्रमिक चैत्यवास के कारण श्वेताम्बर परंपरा में अनेक प्रकार के शिथिलाचार का प्रारम्भ हो गया और कई सदियों तक चैत्यवास का प्रभाव बना रहा । जैन धर्म को चैत्यवास के कारण बहत सहन करना पड़ा। चैत्यवास का प्रारम्भ कब हुआ यह निश्चित रूप से कह नहीं सकते किन्तु विक्रम की प्रथम शताब्दी से ही चैत्यवास का आभास मिलने लगता है। आचार्य पादलिप्तसूरि के समय में चैत्यवास का उल्लेख प्राप्त होता है।' विक्रम की पांचवीं शताब्दी में चैत्यवास का प्रबल आधिपत्य हो चुका था। १. खरतरगच्छ का आदिकालीन इतिहास-महो. चन्द्रप्रभसागरजी म.सा. पृ.५४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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