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________________ युगप्रधान आ . जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान राजपूत युग की मुख्य विशेषता यह थी कि उसी समय अपभ्रंश से प्रभावित लोकभाषा का उदय हो रहा था । ६९ हिन्दी, मराठी, बंगाली और गुजराती भाषाओं की साक्षात् जननी मध्यकालीन अपभ्रंश भाषा मानी जाती है । ७० अपभ्रंश प्राकृत भाषा का अंतिम स्तर है। बारहवीं शताब्दी तक अपभ्रंश का प्रवाह उत्तम रीति से चलता रहा। इस काल के विद्वान आचार्यो में श्री अभयदेवसूरि, श्री वर्धमानसूरि, श्री देवचन्द्रसूरि, श्री जिनदत्तसूरि, श्री हेमचन्द्रसूरि आदि प्रमुख थे । प्राकृत और अपभ्रंश भाषा में सैंकड़ो काव्य लिखे गए। इन विद्वानों ने अपने ग्रंथो में तत्कालीन राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक परिस्थितियों का दिग्दर्शन कराते हुए उस समय के मानव समाज की स्थिति का भी परिचय कराया है। वह काल प्राचीन होते हुए भी वर्तमान में उस साहित्य से हमें बड़ी प्रेरणा और आध्यात्मिक शान्ति का अनुभव होता है । आचार्य जिनदत्तसूरि जी ने संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं में अनेक ग्रंथ की रचना की है। वे ग्रंथ अधिकतर धर्म से सम्बंधित है, तत्कालीन साहित्य और भाषाविज्ञान के इतिहास की दृष्टि से बहुत मूल्यवान है । आचार्य श्री के संरक्षण में तथा योग्य शासकों के उदार शासन में, साहित्य की प्रभूतमात्रा में हुई थी। उन्नति कला जगत : पश्चिम भारत कला कौशल में भी प्राचीन समय से अग्रसर रहा है । आचार्य श्री के समय कला की सर्वांगीण उन्नति हुई है। उस समय के शासकों की कलाप्रियता ने नयनाभिराम स्थापत्यों का निर्माण करवाया था । अतः यह युग स्थापत्य भी स्वर्णयुग था । राजा अपने कलाकारों और शिल्पियों को विशेष आश्रय देते थे । कला का स्तर काफी ऊंचा रहा । ६९. ७०. ७१. १३ ७१ भारतीय संस्कृति का इतिहास, पृ. १३३ गुजरात का जैन धर्म, पृ. १७ मध्ययुगीन भारत - खण्ड- १, डॉ. छोटूभाई र. नायक, पृ. २६९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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