SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 252
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान २३५ १४-१५. प्राण प्रवाद, क्रिया विशाल प्रवाद, लोक बिन्दुसार प्रवाद (यह चौद पूर्व के नाम हैं ) (अब उपांग के नाम बताते है) औपपातिक, राजप्रश्नीय, जिवाभिगम, प्रज्ञापना, सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, जम्बू प्रज्ञप्ति, निरयावलिका यहाँ आदि पाँच श्रुतस्कन्ध है । (अर्थात् निर्यावलिका = पाँच उपांग, उनके नाम पुफ्फिया, पुप्फवडंसिया, देविंदत्थओ और चंदाविज्जय) १६. (प्रकीर्णक के नाम)वीर जिनेश्वर के हाथों से दिक्षित और शिक्षित स्थविरों ने चौदह हजार प्रकीर्णक की रचना की है। १७. दशवैकालिक, आवश्यक, ओघनियुक्ति, पिंड नियुक्ति, पर्युषणकल्प, बृहद्कल्प, पंचकल्प, जीतकल्प, १८. महानिशीथ सूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र इन सब आचार्यकृत आगमों को वंदन करता हूँ। प्रशमरति आदि महाअर्थवाले पाँच सौ प्रकरण को वंदन करता हूँ। १९. युगप्रधान हरिभद्रसूरि रचित चौदहसौ ग्रंथ शुद्ध धर्म प्ररूपक शास्त्र मस्तक पर मणियों की भांति आश्चर्यकारक हैं। २०. नंदि और अनुयोगद्वार प्रमुख और महान् अर्थवाले हैं, ये सूत्र विस्तृत प्रशस्त अर्थ को कहने के लिए समर्थ और श्रेष्ठ हैं। २१. गुणवान युगप्रधान आचार्यों द्वारा रचित अनवद्य प्रकरण को वन्दन करता हूँ। २२.. युगप्रधान और गुरुभगवंत जिनेश्वरसूरि, अभयदेवसूरि और श्री जिनवल्लभसूरि द्वारा विरचित ग्रंथों को वंदन करता हूँ, २३. जिसके सूत्र सूर्य किरणों की तरह कलिकालरूपी कुमुदिनि वन को संकुचित करनेवाले और सुसुप्त प्रजाजन को जागृत करनेवाले हैं। २४. जगह-जगह मार्गनाशक संदेह और मोहरूपी अंधकार को हरनेवाले हैं, और कदाग्रहिरूपी उल्लुओं के लोचनप्रकाश को कवलित करनेवाले हैं। २५. उन सूत्रों से जो प्रकाशित अर्थ है, वह युक्ति से भी टूटता नहीं है। इसलिए संसारभय को हरनेवाले (आगम)सूत्रों का अनुसरण करनेवाले (प्रकरण)सूत्र को वंदन करता हूँ। २६. गुरु जनरूपी गगनतल के प्रसाद से (कृपा से)प्रभावक बने हुए और अपूर्व शोभा को प्राप्त करनेवाले, मोक्षमार्ग के संदेह को हरनेवाले, भव्यजनरूपी कमल को बोध करनेवाले, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy