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________________ २३२ युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान २. सुयत्थव निम्महिय-मोहमाएण कणयकारण विगयराएण। उवलद्ध -विमल-केवलनाणेण विसुद्धझाणेण। लोयालोयं मुणिजण जेण तित्थप्पवत्तण-खणंमि। चउविहं देव-विणिम्मियउ सरणे तिजयजियसरणे ॥२॥ सरणागय-जणरक्खण खमविरइय पवर-वयण-लक्खेण । सम्मं जिणवीरेणं भवदनीरेण धीरेण ।। ३ ।। सयमित्थ पसत्था जा पयासिया अत्थउ गणहरेहिं । विहिया दुवालसंगी सपरेसि सुत्तउ विहिया ॥ ४ ॥ तत्थायारोरोविय पंच-विहायार-वत्थु-वित्थारो। वित्थारिया मुणिगणि गणसारो संसारमवहरउ ।। ५ ।। सूयगड़ो सुत्तिय सुत्त-सियवड़ो पवर-वयण-फल-गमउ। भवजलहि-पारगामी जसहइ सत्ताण पोउच्चा॥६॥ नीसेण पयत्थाण ठाणं ठाण पहाणमिहनाणं। वं देहं समवायं पड़िहय-संदेह-समवायं ॥ ७ ॥ तं नमह पंचमंग जं नमिउं पंचमं गई जीवो। पावइ पाव खयाउ भगवइनामं च नामं च ॥८॥ नायाधम्मकहाउ कयभवविरहाउ निहयवाहाउ। हरिसुल्लसंतपुलउ वंदेह मुवासगदसाउ ।।९।। तह अंतगड़दसाउ अणुत्तरोवाइयाण दसाउ। पण्हावागरणंगं जयइ जणे जणियभवंभंगं ।। १० ।। सुह-दुह-विवागसूयगमित्तोदसमं विवागसुयमंगं । हयसेणदुट्ठ दिट्ठिप्पवाय सह दिट्ठिवायं च ।। ११ ॥ उप्पायसुद्धमग्गेणियं च विरियाणुवायमिह तइयं । अत्थिन्नत्थिपवायं नाणपवायं च पंचमयं ॥१२॥ सच्चप्पवाय मायप्पवाय कम्मप्पवायमट्ठमय। पच्चक्खाणं विज्जाणु-वाय कल्लाणनामं च ।। १३ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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