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________________ २१८ युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान (१६) वीर स्तुति नामक ग्रन्थ में महावीर सहित २४ जिनों की स्तुति है। साथ ही सिद्धान्तों एवं शासनदेवताओं की प्रार्थना अमंगल परिहारार्थ की गयी है। (१७) चक्रेश्वरी स्तोत्र में श्री चक्रेश्वरी यक्षिणी की स्तुति की गयी है। (१८) अजित शान्ति स्तोत्र में द्वितीय तीर्थंकर अजितनाथ और १६ वें तीर्थंकर शान्तिनाथ भगवान की सुललित पद्यों में भावगर्भित स्तुति की गयी है। (१९) पदव्यवस्था गीर्वाणवाणी निबद्ध इस पुस्तक में युगप्रधानाचार्य द्वितीय स्थानीय सामान्याचार्य, उपाध्याय, वाचनाचार्य आदि के नगर प्रवेश आदि के समय किस प्रकार प्रवेश विधि आदि करना चाहिए इत्यादि बातों का निरूपण दिया गया है। (२०) आचार्य जिनदत्तसूरि द्वारा कई ऐसे भी ग्रन्थ हैं जो अप्रकाशित हैं और अन्य जो अत्यन्त लघुकाय हैं उनकी चर्चा यहाँ नहीं की गयी है। आचार्य जिनदत्तसूरिजी मात्र जैनागमों के ही अद्वितीय व मार्मिक विद्वान न थे अपितु न्याय, व्याकरण, साहित्य, दर्शन, छन्द, अलंकार, ज्योतिष आदि विषयों के प्रौढ़ विद्वान थे। साहित्यिक दृष्टि से उनकी रचनाएं अत्यन्त प्रौढ़ एवं उदात्त हैं। उनमें न केवल शास्त्रान्तरों के तत्त्वों का ही दिग्दर्शन हुआ है किन्तु साहित्यिक विशेषताओं की उपलब्धि भी पर्याप्त मात्रा में विद्यमान है । जनता के कल्याण के लिए तथा जनता के प्रचलित उत्सूत्र व अविधिमार्ग के उच्छेद का विधिमार्ग के प्रचार के लिए ही इन ग्रन्थों की रचना हुई है। जिन सिद्धान्तों को सरल व सुबोध भाषा में उपस्थित करना इन रचनाओं का उद्देश्य रहा है । धार्मिक विषयों का प्रतिपादन करते हुए अश्वघोषादि कवियों की कृतियों में साहित्यिकता व कवित्व की अभिव्यक्ति हुई है। एकान्ततः धार्मिक ग्रन्थ होते हए भी उनमें साहित्यिक व शास्त्रीय तत्त्वों की उपलब्धि ग्रन्थकार के प्रतिभा वैलक्षण्य व पौढ़ पाण्डित्य की ही परिचायिका है । अनुप्रास, रूपक, काव्यलिङ्ग, समासोक्ति, विरोधाभास, व्यतिरेक, श्लेष आदि अलंकारों का भी समावेश है। छंदो के विषय में कहा जाता है कि प्रायः गाथा छन्द का प्रयोग किया गया है। अलंकारशास्त्र में भिन्न रसों की अभिव्यक्ति के लिए माधुर्य ओज तथा प्रसाद इन तीन गुणों का सुन्दर वर्णन पाया जाता है। सर्वत्र शान्तरसकी प्रधानता है। ज्योतिषशास्त्र के तत्त्वों का निरूपण भी है। इनकी रचनाओं में उन तत्वों का प्रतिपादन हुआ है जो किसी दर्शन विशेष, सम्प्रदायविशेष, जातिविशेष या देश विशेष के लिए ही उपयोगी नहीं है किन्तु मानवमात्र के लिए है। आप जैन धर्म के प्रचारक और चैत्यवास के विरोधक थे। आपके जीवन का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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