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________________ युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान २१३ आचार्यपद प्राप्ति के बाद उन्हें इस बात की चिन्ता हुई कि-शासन का विशिष्ट प्रभाव फैलाने के लिए मुझे किस तरफ प्रस्थान करना चाहिए ? आचार्य के हृदय में यदि इतनी विराट और प्रशस्त भावना का विकास न हो तो उसमें विश्व बन्धुत्व की भावना तो दूर रही वह स्वकल्याण की कल्पना से वंचित रह जाता है। मात्र उपदेश देना बड़ा सरल काम है । उसे करके बताना कठिन होता है। इसलिए समता और समानता का जयघोष जितना सरल है उतना उसे जीवन में परिणित करना, जीवन में उतारना उतना ही कठिन है । बड़ा दुष्कर एवं दुःसाध्य है यह कार्य । महान पुरुषों के जीवन की सबसे बड़ी सफलता का कारण है उनमें विचार, वाणी और व्यवहार की समानता। उनकी संगठनशक्ति इतनी प्रबल और बुद्धिमत्तापूर्ण थी कि कैसे भी विरोधी को बिना हिचक के अपने समुदाय में सम्मिलित कर लेते थे भले ही उन्हें इस कार्य के लिए समाज का कोपभाजन भी क्यों न बनना पड़े। साहस और नैतिकता का विकास संयमशील जीवन में ही संभव है। प्रायः प्रत्येक युगपुरुष के जीवन में यह देखने को मिलता है कि वे जन्म से प्रतिभा सम्पन्न होते हैं। साहित्यिक आन्तरचेतना के जागरण में प्रेरणा की आवश्यकता है। चाहे उसका प्राप्ति स्थान, उद्गम स्थल कहीं भी हो । जब प्रेरणाशील व्यक्तित्व ही निर्मित हो जाता है तब उससे प्रभावित मुखरित वाणी भी साहित्य का रूप धारण कर लेती है। जब वह कर्णगोचर होती है तब उसके साहित्यिक सौन्दर्य एवं आन्तरसौन्दर्य का प्रपात लोगों के जीवन में प्रस्फुटित हो पड़ता है और लोगों को सराबोर किए बिना नहीं छोड़ता है। कहने का तात्पर्य यह है कि संयमशील एवं गुणवान व्यक्तियों की प्रतिभा स्वभावतः भी मुखरित हो उठती है। यह कहने की भी आवश्यकता नहीं रहती कि साहित्यमात्र युग की अपनी देन है। आचार्यश्री न केवल उच्च कोटि के नेतृत्व सम्पन्न व्यक्ति ही थे अपितु संयमशील साधक होने के साथ-साथ शुद्ध एवं उच्च कोटि के एक साहित्यकार भी थे। साहित्य के विषय में सामान्य जानकारी के साथ-मानवमात्र उत्तम मूल्यवान विचारों से उत्प्रेरित हो सके, यदि इसे ही साहित्य कहें तो विना किसी संकोच के कहा जा सकता है कि-श्री जिनदत्तसूरिजी एक उच्च कोटि के साहित्यसर्जक एवं प्रतिभासम्पन्न साहित्यकार थे। साहित्य समाज का प्रतिबिम्ब है इस दृष्टि से भी आचार्य श्री की कृतियाँ भी माननीय हैं। इन कृतियों में न केवल तत्कालीन जैन धर्म एवं जैन समाज की विभिन्न प्रवृत्तियों का ही अच्छा आभास मिलता है, अपितु तत्कालीन भारतीय साहित्य और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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