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________________ २०८ युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान जाय तो उससे कचरे की सफाई नहीं की जा सकती है। ठीक यहीं हालत कुटुम्ब गाँव एवं देश की है। समाज एवं राष्ट्र के संगठन द्वारा ही देश उन्नति के मार्ग पर लाया जा सकता है। अलगाववादी दृष्टि से समाज, देश और राष्ट्र का सर्वनाश हो जाता है। संगठन में ही शक्ति है। आचार्यश्री के ये वचन मन्त्ररूप हैं। ये वचन बहुत महत्त्वपूर्ण एवं प्रेरणादायक हैं । अतः हम सभी गुरुदेव के उपदेशों को चरितार्थ करते हुए जिनशासन के एक सूत्र में बंध जावें। ताकि मानवता का सर्वोत्कृष्ट उदय हो सके। दादा गुरु की श्रावकों के प्रति उपदेश की विशिष्टता : इस बुहारी के रूपक के माध्यम से दादाजी कहते हैं कि जो एक साथ रहते हैं पिता की आज्ञा का पालन करते हैं, वे सौम्य है, प्रशान्त हैं , विनयवंत हैं। ऐसे योग्य पुत्र अपने माता-पिता के मन में स्थान प्राप्त करते हैं। फलस्वरूप वे हमेशा सुखशान्ति और समृद्धि को प्राप्त करते हैं। जो उपरोक्त गुणों से विपरीत चलता है वह कभी भी ज्येष्ठपद नहीं प्राप्त कर सकता। जिस प्रकार नक्षत्रों के साथ ग्रहों का सम्बन्ध क्रम से होता है, अक्रम से नहीं होता है। इसी प्रकार गृहस्थ को उत्तरोत्तर सम्पत्ति प्राप्त करने के लिए इन गुणों की आवश्यकता होती है। __गृहस्थ को हमेशा न्यायपूर्वक धनोपार्जन करना चाहिए। धन का सदुपयोग दानादि प्रवृत्ति में लगाना चाहिए। एक सुन्दर समाजवाद की रचना करनी चाहिए। साथसाथ ही पंच परमेष्ठी (नवकार मंत्र)का स्मरण करना चाहिए । आचार्यश्री के उपरोक्त उपदेशों का जो भी पालन करता है उसे कभी भी दुःख का सामना नहीं करना पड़ता है। विशिष्ट उपमा अलंकार के द्वारा विषय को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि यदि किसी की जन्म कुंडली में गुरु की दृष्टि तीव्र हो बलवान हो तो शनिश्चर खराब है तभी कुछ बिगाड़ नहीं सकता। अतः जो भी प्राणी संसार में रहते हुए गुरुदेव की शिक्षाओं का अनुसरण करते हैं, अरिहंत भगवान का स्मरण करते हुए जीवनयापन करते हैं, जिस श्रावक के हृदय में परमेष्ठी मन्त्र निवास करता है, उसे कदापि दुःखों का सामना नहीं करना पड़ता है। वे भव्यजीव निर्वाण सुन्दरी के साथ विलास करते हैं, अजरामरपद प्राप्त करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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