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________________ युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान १९७ अलंकार : अलंकारो में अनुप्रास, उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, श्लेष आदि का प्रयोग किया गया है। गुरु गुण वर्णन में उपमा एवं रूपक की छटा तो देखते ही बनती है उदा. अनुप्रास अलंकार : जो अपमाणु पमाणइ छद्दरिसण तणइ जाणइ जिव निय नामु न तिण जिव कुवि घणइ। परपरिवाइगइंदवियारण पंचमुहु तसु गुणवत्रणु करण कु सक्कइ इक्कमुहु ? ॥२॥ प्रस्तुत गाथा में म, ण, इ और व वर्गों के बार-बार प्रयुक्त होने से इसमें अनुप्रास अलंकार है। (२) परिहरि लोयपवाहु पट्टि विहिविसउ पारतंति सहु जेण निहोडि कुमग्गसउ। दंसिउ जेण दुसंघ-सुसंघह अंतरउ वद्धमाणजिणतित्थह कियउ निरंतरउ ॥१०॥ प्रस्तुत गाथा में प, ह और व वर्ण के बारम्बार उच्चारण से अनुप्रास अलंकार उपमा अलंकार : नमिवि जिणेसर धम्मह तिहुयण सामियह पायकमलु ससिनिम्मलु सिवगय गामियह। करिमि जहट्ठियगुणथुइ सिरिजिणिवल्लहह जुगपवरागमसूरिहि गुणिगणिदुल्लहह॥१॥ त्रिभुवन के स्वामी शिवगति में गये हुए जिनेश्वर श्री धर्मनाथ स्वामी के चन्द्र के जैसे निर्मल चरण कमल को नमस्कार करके। यहाँ पर ससि निम्मलु- शशिनिर्मल अर्थात् चन्द्रमा के समान-निर्मल चरण में उपमा अलंकार है। जबकि - पायकमलु में रूपक अलंकार है । क्योकि पायकमलु अर्थात् पादकमल दूसरे शब्दों में कहे तो कमलरूपी चरण । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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