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________________ १८८ युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान सुकइ विसेसियवयणु जु वप्पइराउकइ सु वि जिणवल्लहपुरउ न पावइ कित्ति कइ। अवरि अणेयविणेयहिं सुकइ पसंसियहिं तक्कव्वामयलुद्धिंहिं निच्चु नमंसियहिं ।। ६ । आचार्य श्री जिनदत्तसूरिजी अपने गुरु श्री जिनवल्लभसूरिजी के गुणों का वर्णन करते हुए कहते हैं कि- गुरुजी के गुणों का वर्णन करना मेरे सामर्थ्य के बाहर है। मैं तो एक मुख वाला हूँ उनके गुणों का वर्णन कैसे करूँ ? जिनवल्लभसूरिजी षट्दर्शन के ज्ञाता हैं; जैनेतर वादो रूपी गजेन्द्रों को विदीर्ण करनेवाले पञ्चानन हैं। अर्थात् परवादी रूप मदोन्मत्त हाथियों का विदारण करने में पञ्चमुख सिंह के समान हैं। शास्त्रों के ज्ञान-व्याकरणशास्त्र, महाकाव्य, शुद्ध शब्दों के चयन में चतुर, छन्दशास्त्र के व्याख्याता, बृहस्पति की बुद्धि को परास्त करनेवाले, कवि माघ द्वारा प्रशंसित कालिदास, वाक्पतिराज, बाणभट्ट, मयूरादि प्रभृति से भी श्रेष्ठ है। क्योंकि जब तक लोग जिनवल्लभ का नाम नहीं सुनते तभी तक कालिदासादि कवि कुल कुमुद माने जाते हैं । वाक्पति ने तो केवल प्राकृत भाषा में गौडवधादि प्रबन्ध काव्यों की रचना की है, कालिदास चित्रकाव्य के भी पूर्ण ज्ञाता नहीं हैं, परन्तु जिनवल्लभ का अधिकार संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश आदि कई भाषाओं पर था । अतः आचार्य श्री इन कवियों में उत्कृष्ट थे। जिन्होने विविध स्तुति, स्तोत्रपाठ तथा अन्य काव्यों की रचना की है। जिनवल्लभसूरिजी में पांडित्य का सागर प्रवाह पूर्ण था। इस प्रकार उन्हें समग्र विषयों का ज्ञान था जिसके लिए उन्हें प्रकाण्ड विद्वान कहने में कोई अत्युक्ति नहीं हैं। (२-६) इस प्रकार चर्चरी ग्रन्थ के गाथा क्रमांक १ से लेकर ७ पर्यन्त उनके गुणों, विद्वत्ता का वर्णन खूब अच्छी तरह से किया गया है। जिस प्रकार शिष्यों के अज्ञानरूपी अन्धकार को दूर करने के लिए समर्थ गुरुओं की कल्पना की गयी है, ठीक उसी प्रकार आचार्य श्री जिनवल्लभसूरिजी समर्थ गुरुओं में से एक है । वास्तविक गुरु वही है जो सच्चे अर्थों में लोककल्याण की दृष्टि से सब के कल्याण की कामना के साथ-साथ सतत प्रयत्नशील रहे। आचार्यश्री उसी कोटि के गुरु है। जिनवल्लभसूरिजी की स्तुति के बाद विधिचैत्यों का वर्णन करते हुए दादासाहब कहते हैं कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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