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________________ १७४ युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान कि वह उक्त क्षेत्रों में चंचल लक्ष्मी का सद्व्यय करके परलोक के लिए पुण्यरूपी फसल उत्पन्न करें। "२३ इसलोक में प्राप्त बीजवपन का सर्वोत्तम समय व्यतीत होगा तो परभव में क्या सुख शान्ति प्राप्त होंगी ? सुअवसर प्राप्त हुआ है, जिसमें एक का अनेक होनेवाला है। जिनवचनों में विश्वस्त होकर इन सात क्षेत्रों में धन लगाना चाहिए। यहि धन लगाने की शक्ति न हो अर्थात् धनाभाव हो तो धर्म नहीं किया जा सकता ऐसी बात नहीं है । धर्म किया जा सकता है, पुण्य कमाया जा सकता है । प्रश्न उठता है कैसे ? “अनुमोदन रूपी जल के सिंचन से।" । ___ उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट होता है कि लोगों को धार्मिक प्रवृत्तियों के प्रति एवं दानादि की प्रवृत्ति में भी भाग लेने के लिए आचार्य श्री ने इस प्रकार के नियमों का भी सर्जन किया है, जागरूक किया है। साधर्मिक-धन से भी सेवा करके जिनशासन के प्रचार-प्रसार सम्बन्धी सहयोग दें यही दादाजी का उद्देश्य था। (५१-६२) आचार्य श्री लोकव्यवहार का स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं कि आचार्य श्री के लोकव्यवहार को देखने से पता चलता है कि उन्होने तत्कालीन सामाजिक परिस्थिति का भी गहरा चिन्तन किया है। सद्गृहस्थों के लिए भी कतिपय मार्गदर्शित सामाजिक उपदेश दिये है जो इस प्रकार है सद्गृहस्थों को रहनसहन सुचार रूप से धार्मिक वातावरणयुक्त होना चाहिए। अन्य कुल में समुत्पन्न हुई कन्या का यदि आचार-विचार, रहन-सहन, रीति-रिवाज़, खान-पान पृथक् है तो न कन्या प्रसन्न रह सकती है, और न ही अन्य परिवारिक जन । आचार्यश्री ने सत्य ही कहा है कि बेटा बेटी का विवाह समानकुल मे विवाह करें जिससे एक दूसरे के जीवन में विषमता न आवे । २३. सप्त क्षेत्रि रासु-रचयिता अज्ञात कवि-संपादक-बुद्धिसागर, वि.सं.१३२७ सप्तक्षेत्रे जिनसासिणहि सघली कहीजई। अथिरु रिद्धि धनु द्रव्युब्बीजउ तहि पिवानो जह॥ तेहि क्षेत्रि वावेत्रणा थानि कि लाभइ देवलोको। १९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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