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________________ १७० युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान उचिय थुत्ति-थुयपाढ पढिज्जहिं जे सिद्धतिहिं सहु संधिज्जहि। तालारासु वि दिति न रयणिहिं दिवस वि लउडारासु सहुँ पुरिसिहि ।। ३६ ॥ आचार्यवर्य के युग में रास, रासडा तथा डांडिया रास आदि विविध नृत्यगानों का चैत्यगृहों में विशेष प्रचार था। मंदिरों में नाटक भी खेले जाते थे। तालारासक एवं विविध वादित्रों का भी वादन होता था। विविध प्रकार से लोग अपने भक्ति भावों को प्रदर्शित करते थे। आचार्य श्री का कहना था कि-जिन मन्दिरों में उचित स्तुति, स्तोत्र पढ़े जाने चाहिए जो जिन सिद्धान्तों के अनुकूल हो। श्रद्धायुक्त होने पर भी रात में तालारासक प्रदर्शित नहीं होना चाहिए। दिन में भी महिलाओं को पुरुषों के साथ डांडिया रास नहीं खेलना चाहिए। ___ अर्थात् “चैत्यगृहों' में उन गीतवाद्यों का प्रेक्षण, स्तुति स्तोत्र, क्रीडा-कौतुकों को वर्जित मानना चाहिए, जिन्हें विरहांक हरिभद्रसूरि ने त्याज्य कहा है। वहाँ (जिन चैत्य)रात्रि में स्नान और प्रतिष्ठा नहीं होती और वहाँ साधु-साध्वी एवं युवतियों का प्रवेश रात्रि में नहीं होता। वहाँ विलासिनी वैश्याओं का नृत्य नहीं होता। जिन चैत्य में रात्रि के समय रथ भ्रमण कभी नहीं कराया जाता और वहाँ लकुटरास करते हुए पुरुषों को भी रोका जाता है। क्योंकि ___जो वारांगनाएं नव यौवना होती है वे श्रावकों को (धर्माध्यवसाय से)गिराने लगती हैं। उससे श्रावक का चित्त विक्षिप्त हो जाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो श्रावक मानसिक ढंग से क्षुब्ध हो जाता है। इस प्रकार समय के साथ वे श्रावक शनैः शनैः पथभ्रष्ट हो जाते हैं। अपने स्थान से उन्नति के वजाय अवनति के रास्ते पर बढ़ने लगते हैं। बहुत से लोग तो रागान्ध होकर उन वागंगनाओं में लिप्त होने लगते हैं। वारांगनाओं के मुखावलोकन में तल्लीन जिनेश्वर के मुखकमल से विरही होने लगते हैं। या जिनेश्वर की तरफ उनकी दृष्टि कम होने लगती है। जो लोग जिनभवन में चित्त-शान्ति के लिए एवं सुख शान्ति के लिए आते हैं वे तीक्ष्ण कटाक्षों के आघात से घायल हो जाते हैं। और उनका कभी भी पतन हो सकता है। इसलिए सूरिजी ने रात्रि में ताला स एवं लकुटरास को भी वर्त्य माना है। सं. १३२७ के आस-पास जिनेश्वरसरि के श्रावक जगड चरित 'सम्यक्त्व माई चउपई में डरा मत का समर्थन किया है। .. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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