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________________ १५४ युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान १४. वाडिकुलकम् प्राकृत भाषा में रचित है। इसमें २४ पद्य है, गाथा छन्द का प्रयोग किया गया हैं। रचनाकाल के बारे में जानकारी उपलब्ध नहीं हैं । यह अप्रकाशित कृति है ।परिशिष्ट में मूल एवं अनुवाद क्रमांक-४ पर दिया जा रहा है। ८६ वाड़ीकुलक कृति में आचार्यश्री ने बताया है कि जीवन में धर्म संरक्षण के लिये कोई न कोई संरक्षक होना चाहिए। अनादिकाल से सुरक्षा पर विशेष ध्यान दिया गया है। सुरक्षा शब्द का अर्थ बहुत ही व्यापक है। सुरक्षा चाहे राजा एवं राज्य से सम्बन्धित हो, देश काल एवं वातावरण से हो, अधर्म से धर्म की हो, दुर्जनों से सज्जनों की हो, वनस्पतियों की पशु से हो, शिष्यों की गुरु से हो अथवा मन्त्रों की दुरुपयोग से होअपितु सुरक्षा महत्वपूर्ण है। राज्य की रक्षा (१) राजा (२) मंत्री, (३) मित्र, (४) कोष, (५) दुर्ग, (६) खाई, (७) और सेना से होती है । एवं सुंदर बगीचों में पल्लवित एवं पुष्पित होनेवाले वृक्षों एवं पौधों की सुरक्षा के लिये माली एवं वाड़ (चार दीवार, तार की वाड़)की व्यवस्था की जाती है। ये सब चीजें तो लौकिक है, तो पारलौकिक अर्थात् भव से छुटकारा पाने के लिये धर्म की सुरक्षा हेतु भी विभिन्न वाड़ों की व्यवस्था आचार्य जिनदत्तसूरिजी ने अपनी कृति “वाड़ीकुलकम्” में इस प्रकार बताई है : तीर्थंकर और युगप्रधानाचार्य ये दोनों सर्वश्रेष्ठ वाड़ के समान हैं, जो पर्वत की भांति प्रलयकाल में भी अपने स्थान से चलायमान नहीं होते हैं। दूसरे धर्माचार्य, वाचनाचार्य, प्रवर्तक स्थविर, साधु-साध्वी ये सभी कंटक वाड़ समान हैं। कंटकवाड़ी के बिना वृक्ष शुभ फल प्राप्त नहीं करते इसी तरह गुरु के लिए भी संरक्षकरूपी वाड़ होनी चाहिए। प्रसन्न चित्त, अप्रमत्त, सुविहित, शांत और शिष्य-परम्परा से युक्त सद्गुरुरूपी वृक्ष उपदेशस्वरूप सुंदर फल देनेवाले होते हैं। ऐसे सद्गुरु की निश्रा प्राप्त करके अपने आप को बचाना चाहिये। इसकी प्रति पाटण के भण्डार में प्रति नं. ३८९४ में से प्राप्त की है। इसी प्रति पर से शुद्धि करके एवम् सम्पादन करके परिशिष्ट में कृति दी जा रही है। साथ ही साथ हिन्दी अनुवाद भी परिशिष्ट में दिया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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