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________________ १५२ युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान इस काल में पचपन करोड़ लाख, पचपन करोड़ हजार और पच्पन करोड़ सो आचार्य होंगे।८३ उनमें से कितने तो तीर्थंकर सदृश गुण निष्पन्न आचार्य होंगे। सुधर्मास्वामी से लेकर अन्तिम दुःप्रसह साधु पर्यन्त (इक्कीस हजार वर्ष के दीर्घकाल में)२००४ युगप्रधान आचार्य होंगे। ये युगप्रधान आचार्य चन्द्र समान मुखवाले, मधुर वाणी वाले, सर्व सूरियों में श्रेष्ठ होंगे। अतः युगप्रधान आचार्यों की, तीर्थंकरों की विनयपूर्वक सेवा करके उनके बताये मार्ग पर चलकर भव्यजीवों को आत्मसाधक बनना चाहिये। (१९ से २४) युगप्रधान आचार्यों के स्वरूप का वर्णन करते हैं: युगप्रधानाचार्य रागद्वेष से रहित होकर, आगमोक्त आचरण करते हैं, ये स्व और पर का कल्याण करते हैं, सद्गुओं का पारतन्त्र्य (संरक्षता)धारण करते हैं, विधि मार्ग का पालन करते हैं, गुणनिष्पन्न चतुर्विध संघ (साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका)का सन्मान करते हैं, निर्भयतापूर्वक सत्य वचनों का उपदेश देते हैं, जिनेश्वर और गणधरभाषित मार्ग का (प्ररूपणा)उपदेश देते हैं। ऐसे युगप्रधानाचार्य सौम्य, मधुरभाषी, सर्वथा निष्कलंक, नित्यपरोपकारी, वय की अपेक्षा तरुण होने पर भी गुण वृद्ध और ज्ञानवृद्ध होते हैं। ऐसे युगप्रधानाचार्य के समय में उन्मत्त वादीरूपी अन्धकार का नाश होता है, यदि उनके समक्ष उन्मत्त वादी उपस्थित हो तो भी सम्यग्दर्शन में जरा भी बाधक नहीं हो सकते। सूर्यास्त होने पर अन्धकार फैलता है और तारे चमकने लग जाते हैं, वैसे ही युगप्रधानाचार्य के दिवंगत होने पर अज्ञानरूपी तिमिर(अन्धकार) फैल जाता है। उपदेशकुलक के अन्तिम श्लोक में उपसंहार करते हुए कहते हैं कि जिनेश्वरदेवों द्वारा उपदिष्ट सुंदर मुक्ति मार्ग के प्रवासी युगप्रधानाचार्यों का स्वरूप निहित परिमाण “महानिशीथसूत्र' में कहा है। गाथा ३५ के अन्त में रचयिता का नाम “जिणदत्त''४४ ८३. मूलमहानिशीथ सूत्र-सम्पा. मुनि दीपरत्नसागर-५/१७ , पृ. ६४ "एत्थं आयरियाणं पणपत्रं होति कोडि लक्खाओ। कोडि सहस्से कोडि सए य तह एत्तिए चेव ॥' -गाथा १७ ८४. इस कुलक के अन्तिम गाथा के अनुसार जिनदत्तसूरिजी ने महानिशीथसूत्र के आधार पर युगप्रधानाचार्य का स्वरूप वर्णित किया है। इसलिये इस कुलक का नाम “युगप्रधानाचार्य कुलक' होना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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