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________________ युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान १३७ प्रवचनसारोद्धारसूत्र में पासत्थ, अवसन्न, कुशील, संसक्त और यथाछन्द इन पाँचों को जिनेन्द्रमत में अवन्दनीय कहा है। ६६ उक्त आगमशास्त्रों में भी पार्श्वस्थ आदि शिथिलाचारियों को वंदन करने का निषेध किया है: शुद्ध धर्मयुक्त उपासकों को शिथिलाचारियों एवं कुतीर्थिकों का त्याग करना चाहिये । जो शिथिलाचारी, चैत्यवादी देवद्रव्य का उपयोग करता है, उसे अनंतकाल तक भवभ्रमण करना पड़ता है । इस प्रकार चैत्यवासी शिथिलाचारी, पार्श्वस्थ की मान्यता और प्ररूपणा शास्त्र विरुद्ध होने से त्याज्य और निन्द्य है। __ अत: जिनेन्द्र भाषित श्रेष्ठ अनुष्ठान पालन करें। सुविहित साधुओं के प्रति श्रद्धा एवं बहुमान रखें। जिससे सम्यक्त्व रत्न की प्राप्ति होती है। __ अब गाथा ३४ से ३५ में बताया है कि पौषधशाला में श्रावक जीवविचार, उपदेशमाला आदि की चर्चा आपस में कर सकते हैं। जिस श्रावक ने गीतार्थ गुरु महाराज से भली भांति प्रकरण सुना है वह अन्य श्रावकों को सुना सकता है। श्रावक प्रकरणार्थ को कहते हुए कोई कुछ प्रश्न पूछता है उसे श्रावक नहीं जानता है, तो वह कह दे कि गीतार्थगुरु से पूछकर जवाब दूंगा। (३६-३७) श्रावक पौषध कब करें उसके विषय में कहते है कि: अष्टमी, अमावस्या, पूर्णिमा ये पौषध के दिन बताये है, इन तिथियों को श्रावक सम्पूर्ण चारों प्रकार के पौषधों को करता है। (३८) श्रावक को पर्वतिथि में पौषध करना चाहिये । पौषध शब्द की व्युत्पति बताते है- पौषध शब्द संस्कृत में "उपवषथ" शब्द से निर्मित हुआ है। जिसका अर्थ है"धर्माचार्य के समीप या धर्मस्थान में रहना" धर्मस्थान में निवास करते हुए उपवास करना पौषधोपवास है। “पासत्थो ओसन्नो, होइ कुसीलो तहेव संसत्तो। अहच्छंदोवि य एए, अवंदणिज्जा जिणमयम्मि ॥" (गाथा-१०३) प्रवचन सारोद्धार भाग-१, वन्दनद्वार-२, नेमिचन्द्रसूरि विरचित-गाथा-१०३, पृष्ठ-३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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