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________________ युगप्रधान आ . जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान १. द्रव्य धर्म : द्रव्यधर्म अर्थात् सूत्रविरुद्ध एवं अशुद्ध ऐसा वह शुभाचाररूप धर्म भी द्रव्यधर्म कहा जाता है । क्योंकि प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान में स्थित जीवों के द्वारा अविचारपूर्ण प्रवृत्ति से गड़रिया प्रवाह की तरह किया गया धर्म है । ऐसा जो धर्म है, जिसमें कि अविधिपूर्वक मंदिर बनाना, पूजन करना आदि कार्य होते हैं। इसके अधिकारी दुष्कर कठोर क्रिया आचरण करके देव-सम्बन्धी आयुष्य, विषय-भोग की तल्लीनता के कारण नरक और तिर्यञ्च गति में बहुत दुःखों को भोगते हैं । उनको मोक्षफल की प्राप्ति नहीं होती; ठीक ही लिखा है कि- भाग्यहीन के घर कल्पवृक्ष नहीं उगता । २. भावधर्म : १३५ अविरत सम्यक् दृष्टि गुणस्थानक आदि में स्थित जीव द्वारा विचारपूर्वक किया हुआ शुभ अनुष्ठानवाला धर्म भावधर्म है। भाव धर्म के दो भेद: (१) साधुओं का शुद्ध भाव धर्म । गृहस्थों का शुद्ध भाव धर्म । (२) भाव धर्म के अधिकारी जीव वैमानिक देव होकर सुक्षेत्र और उत्तम कुल में मनुष्य जन्म प्राप्त करके शीघ्र ही मोक्ष को प्राप्त करते हैं। अब अधर्म की परिभाषा देते हुए कहते हैं कि हिंसा आदि १८ पाप स्थानकों का सेवन करने से अधर्म होता है। जो जीव अधर्म करता है, वह तिर्यञ्च और नरक गति जाता हैं । वहाँ भी आर्त और रौद्र दोनों दुर्ध्यान बने रहते हैं। ऐसे जीवों को स्वप्न में भी स्वर्ग और मोक्ष सुख की प्राप्ति नहीं होती है । (१ से १६ ) 1 पुण्य से ही सद् गुरु की प्राप्ति होती है। जहाँ सद् गुरुओं का विहार नहीं होता, उन भव्यात्माओं के दिल में सद्गुरु के सत्संग बिना सैकडों संदेह उत्पन्न होते हैं । उन संदेहों के निवारण हेतु विशेषरूप से श्रावकों के लिये आचार-सम्बन्धी, शास्त्र सम्मत निर्देशन करते हुए आचार्यश्री कहते है कि : प्रश्न (१) एक श्रावक गीतार्थ गुरु से परिग्रह-परिमाण व्रत ग्रहण करता है, तो दूसरा श्रावक गुरु के दर्शन करने में असमर्थ हो तो उस स्थिति में जिसने सद्गुरुओं से परिग्रह प्रमाण लिया है तो दूसरा उसकी साक्षी से व्रत ग्रहण कर सकता है ? उत्तर- ग्रंथकार कहते है कि वह परिग्रह परिमाण सद्गुरुओं से ग्रहण किया है, शास्त्रोक्त है, तो उससे दूसरा परिग्रह परिमाण व्रत ग्रहण कर सकता है। ( २२ से २५ ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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