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________________ १२६ युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान मधु-शहद एक पुष्प के अंदर से मक्खी रसपान करती है, दूसरी जगह वमन करती है उसे मधु-शहद कहते है। लाखों जंतुओं तथा मक्खी के अंडों के नाश से पैदा हुआ मधु अधिक हिंसावाला होने के कारण खाने योग्य नहीं है। आचार्य हेमचन्द्र ने कहा- अनेक जाति के समूहवाले जीवों के नाश से प्राप्त हुआ दुगुञ्छनीय और मक्खियों के मुख से निकला हुआ लार व थूक से बना हुआ मधु का कौन सुज्ञ पुरुष स्वाद करे ? अर्थात् कोई नहीं। मधु में अत्यधिक मिठास होती है, क्षणिक मिठास का परिणाम भयंकर है। ऐसा विचार करके उसका अवश्य त्याग करना चाहिये। मक्खन : मक्खन को छाछ में से बाहर निकालते ही उसी ही रंग के सूक्ष्म त्रस जीव उत्पन्न होते हैं। बस जीवों की हिंसा के कारण मक्खन अभक्ष्य है। रात्रि-भोजन: सूर्यास्त के बाद सूक्ष्म जीवों की उत्पत्ति होती है, उसे बिजली के प्रकाश में भी नहीं देख सकते हैं। वे जीव भोजन में, रसोई में नष्ट हो जाते हैं, इससे घोर हिंसा का पाप लगता है। रात्रि को भोजन करने से आरोग्य में हानि होती है, अजीर्ण होता है, कामवासना जाग्रत होती है, सुबह उठने की इच्छा नहीं होती और प्रमाद बढ़ता है ! जहरी जंतुओं से मृत्यु का भी भय रहता है । रात्रिभोजन निषेध का शास्त्रों में उल्लेख आया है। दसवैकालिक सूत्र में- निर्ग्रन्थ (श्रमण) जो होते हैं वे रात्रिभोजन नहीं करते ! ४९ दशवैकालिक सूत्र में रात्रिभोजन विरमण को छट्ठा व्रत कहा है। उसे सर्वथा त्याग करना चाहिये। ५० उत्तराध्ययन में- श्रमण जीवन के आचार-विचार का निरूपण करते हुए स्पष्ट बताया है कि प्राणातिपात विरति आदि पाँच सर्व विरतियों के साथ ही रात्रिभोजन त्याग अर्थात् रात्रि में सभी प्रकार के आहार का वर्जन करना चाहिए।'' ४९. ५०. ५१. दशवकालिक सूत्र-अध्ययन-३ दशवैकालिक सूत्र-अध्ययन ४ सूत्र १६ उत्तराध्ययन सूत्र-अध्ययन १९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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