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________________ ११० युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान उत्प्रेक्षा अलंकार: कयसावयसत्तासो, हरि व्व सारंग भग्ग-संदेहो। गयसमयदप्पदलणो, आसाइअपवरकव्वरसो॥ १५ ॥ हरि अर्थात् सिंह के समान जो गय अर्थात् गज के दर्प का दलन करने में मानों समर्थ है। श्लेष अलंकार : दंसिअ-निम्मल-निच्चल-दन्त-गणो गणिअसावओत्थभओ। गुरुगिरिगुरुओ सरहु व्व, सूरिजिणवल्लहो होत्था॥१८॥ दंत = (१) दांत, (२) दान्त (दमन करने वाले) सावअ = (१) श्वापद (२) श्रावक इस प्रकार दो अर्थ से युक्त पदों के कारण यहाँ श्लेष अलंकार है। *** ५. विघ्नविनाशी स्तोत्र इस स्तोत्र का दूसरा नाम “सिग्घमवहरउ'' है, क्योंकि आदि का शब्द 'सिग्घमवहरउ' है। इस स्तोत्र का खरतरगच्छ-मान्य दैनिक संस्मरणीय सप्तस्मरण में षष्ठम स्थान है। यह स्तोत्र प्राकृत भाषा में रचित है। इसमें १४ पद्य हैं और गाथा छन्द का प्रयोग किया गया है। इस स्तोत्र के रचनाकाल की विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है। इस स्तोत्र पर अनेक वृतियाँ लिखी गई हैं।२२ खरतरगच्छीय पंच प्रतिक्रमण व सप्त स्मरण में प्रकाशित है। पंच प्रतिक्रमण में संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद सह प्रकाशित है। __ इस स्तोत्र के बारे में कहा जाता है कि विक्रमपुर में महामारी का प्रकोप फैला था, तब आचार्यश्री ने सप्तस्मरण पठन करके प्रकोप शांत किया। इसकी लोकप्रियता और प्रभावोत्पादकता का इससे अधिक और क्या प्रमाण हो सकता है ! २२. (अ) अज्ञात वृत्तिकार कृत टीकाए बीकानेर भण्डार में उपलब्ध है । (युगप्रधान जिनदत्तसूरि पृष्ठ ५७) (ब) प.पू.श्री समयसुन्दरजी म.सा.ने वि.सं. १६९५ में टीका रची गयी है। (क) महोपाध्याय साधुकीर्ति कृत बालावबोध (यति डुंगरसी भण्डार जैसलमेर)में है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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