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________________ १०४ युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान इस स्तोत्र की रचना के विषय में कहा जाता है कि विक्रमपुर में महामारी का बड़ा प्रकोप फैला हुआ था। तब श्रावकों के अनुरोध से और जैनशासन की प्रभावना को लक्ष्य में रखकर आचार्यश्री ने सप्तस्मरण पठन-पाठन धार्मिक अनुष्ठान द्वारा प्रकोप को शान्त किया था। सप्तस्मरण का प्रभाव अत्यधिक है । खरतरगच्छ समाज में दैनिक सप्तस्मरण का पठन-पाठन का प्रचलन है । सप्तस्मरण में चतुर्थ पंचम और षष्ठ स्तोत्र आचार्य जिनदत्तसूरिजी द्वारा रचित हैं। तथा प्रथम ग्माण अजित शांति'-नंदिणकट, द्वितीय स्मरण लघुअजितशान्तिस्तव' (उल्लासिक)-जिनवल्लभसूरिकृत और तृतीय स्मरण 'नमिऊण' मानतुंगाचार्य कृत इस प्रकार सप्त स्मरण के उपरोक्त रचयिता थे। प्रस्तुत कृति में अन्तिम तीर्थंकर महावीरस्वामी और उनके अधिष्ठायक शासनदेव, देवियां, ग्रह, नक्षत्र, दिक्पाल आदि के गुणों का वर्णन करते हुए एवं अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन नवपदों के स्वरूप का वर्णन करते हुए, आचार्य श्री शासननायक भगवान महावीर स्वामी द्वारा स्थापित चतुर्विधसंघ (साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका)तीर्थ का मंगलकल्याण करने हेतु प्रार्थना करते हैं। (१ से १०) यहाँ पर आचार्यश्री चौबीस तीर्थंकरों के चौवीस यक्ष, शासन देवियाँ, सोलह विद्या देवियाँ, गीतरति- गीतजस नामके व्यन्तर देवता, इन्द्र, गृहदेवता, गोत्रदेवता, जल, स्थल, वन और पर्वत में रहनेवाले देव-देवियों से प्रार्थना करते हैं कि श्रीसंघ के दुःखों का शमन करें । तत्पश्चात् क्षेत्रपाल, दश दिक्पाल, नक्षत्र, नव ग्रह, चौसठ योगिनियाँ, राहु ग्रह, कालपाश, कुलिकयोग, अर्द्धप्रहर योग, कालमुखी योग तथा चार निकाय (भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क, वैमानिक)के देवताओं से भी प्रार्थना करते हैं कि आप सभी सर्व संघ में शान्ति करें, सर्व पापों का नाश करें। इस प्रकार संघरक्षार्थ हेतु मंगल कामना करते हैं। (१६ से २०) ग्रंथकार भगवान महावीर के विशेषणों का वर्णन करते हुए कहते हैं कि सो जयउ जिणो वीरो, जस्सऽज्जवि सासणं जए जयइ। सिद्धि-पह-सासणं कुपह-नासणं सव्व-भय-महणं ॥ २२ ॥ १९. खरतर पट्टावली-२ पैरे. ४४ पृ.२७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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