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________________ विधि और आरात्रिक वृत्तानि है। (ब) में प्राकृत कृतियों का संकलन है। इन कृतियों में गणधर सार्द्धशतक, गणधर सप्ततिका एवं छोटे स्तोत्र आदि कई छोटी-मोटी कृतियाँ है। “गणधर सार्द्धशतक" १५० गाथाओं में गुम्फित है। जिसमें इन्होने भगवान महावीर के शिष्य गणधर गौतम से लेकर अपने गच्छाधिपति गुरु जिनवल्लभसूरि तक के आचार्यों की स्तुति की है। गणधर सार्द्धशतक का मुख्य प्रयोजन धर्म, गुरु और तीर्थंकरो के प्रति भावयुक्त श्रद्धाञ्जली अर्पित करना ही प्रतीत होता है। गणधर सार्द्धशतक खरतरगच्छ के इतिहास और इस तरह समग्र जैन धर्म के इतिहास में उपयोगी एक महत्त्वपूर्ण कृति है। “सुगुरुगुणसंथव सत्तरिया' (गणधर सप्ततिका)में गणधरों की स्तुति की गई है। महान् पुरुषों के प्रति आचार्य जिनदत्तसूरिजी के हृदय मे अपार आदर और श्रद्धाभाव था इसका यहां प्रदर्शन है। ___ “सर्वाधिष्ठायी स्तोत्र'' में गणधरों, देवताओं, षोडशविद्यादेवियाँ, चक्रेश्वरी, वैरोट्या आदि २४ शासन देवियाँ, दश दिक्पाल, क्षेत्रपाल, नक्षत्र आदि से प्रार्थना की गयी है। “सुगुरु स्तोत्र'को “मयरहियं स्तोत्र भी कहा जाता है। इसमें सुगुरु पारतन्त्र अर्थात् सद्गुरु की आज्ञा का पालन ही सच्चा धर्म है इस बात का उपदेश दिया गया है। "विघ्नविनाशी स्तोत्र' में संघ के विध्नविनाश तथा मंगलप्राप्ति के लिए और सम्प्रदाय की सुरक्षा के लिए प्रार्थना की गयी है । अन्त में श्री वर्धमान सूरि, श्री जिनचन्द्रसूरि, श्री अभयदेवसूरि तथा श्री जिनवल्लभसूरि से तीर्थ की वृद्धि के लिए प्रार्थना की गयी है। बाद में "श्रुतस्तव'' ग्रंथ में शास्त्रों का निरूपण तथा जैनशास्त्र के मूलभूत आचारांग, सूत्रकृतांग आदि ग्यारह अंग, द्वादश उपांगों, पूर्व तथा पश्चात् लिखित रचनाओं तथा अन्य सूरियों द्वारा लिखे गये ग्रंथों के उल्लेख है। ___“पार्श्वनाथ मन्त्र गर्भित स्तोत्र के विषय में निर्देश दिया गया है कि शायद ही यह रचना आचार्यश्री की होनी चाहिए। ___ “महाप्रभावक स्तोत्र' में ग्रंथकार के द्वारा विभिन्न प्रकार के ज्वर और विध्नों को दूर करने की प्रार्थना की गई है। अन्त में जिनसिद्धान्तों को मानने वाले विधि संघ के आरोग्य सौभाग्य और अपवर्ग की भी प्रार्थना की गई है। “चैत्यवंदन कुलक' में सर्वप्रथम तीन प्रकार के वासक्षेपों का विवेचन किया गया है । वासक्षेप पश्चात् इसमें विधि चैत्य, निश्राकृत चैत्य तथा अनायतन चैत्य भेदों का वर्णन किया गया है । तथा श्रावक-श्राविकाओं के दैनिक-कर्तव्य, सम्यक्त्व का IX Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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