SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 81
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६६ हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन स्वयं ने संयम ग्रहण कर लिया। उस समय हेमन्त ऋतु का प्रथम मास, मगशर कृष्ण दशमी तिथि का समय, सुब्रत दिवस, विजय नामक मुहूर्त और चतुर्थ प्रहर में उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र था । ऐसे शुभ समय में निर्मल बेले की तपस्या से प्रभुने दीक्षा ग्रहण की। भगवती सूत्र में आत्मकथा के रुप में भगवान महावीर ने कहा कि मैं ३० वर्ष गृहवास में रहा, माता-पिता के स्वर्गवास होने के बाद स्वर्णादिक का त्याग करके एकदेवदूष्य वस्त्र धारण किया और प्रवर्जित हो गया । ' जैन जगत के अन्तिम होनहार तीर्थंकर ने विराट् देवमानव समूह के बीच यह उद्घोष किया कि - " सव्व में अकरणि ज्जं पावकम्मं - आजसे सब पाप कर्म मेरे लिए अकृत्य हैं। लाखों देव और मानव निश्चल भाव से देख रहे थे कि वह वैभव और ऐश्वर्य में पला राजकुमार आजसे अकिंचन होकर, मात्र आत्म हिताय ही नहीं, बल्कि सर्वजनहिताय सर्वजनसुखाय अकेला शान्त और निस्पृह साधना के कंटकाकीर्ण मार्ग पर निकल पड़ा है। स्थानांग सूत्र में यह भी लिखा है कि श्रमण भगवान महावीर बज्रऋषभनाराच संघयण समच तुष्क संस्थानवाले और सात हाथ ऊंचे शरीर वाले थे। भगवान महावीर ने दीक्षा ली केवलज्ञान, दर्शन और मोक्ष प्राप्त किया इन तीनों प्रसंग पर बिना जलके निर्जल दो उपवास की तपस्या की थी । सबसे पहले अंग सूत्र आचारांग में भगवान महावीर के साधक जीवन - तप आदि का जो विवरण मिलता वह बहुत ही महत्वपूर्ण है । र वास्तविकता के बहुत निकट है। उसमें एक महत्वपूर्ण बात का निर्देश है कि १३ महीने तक भगवान ने देवदूष्य वस्त्र को अपने पास रखा, पश्चात् दूसरे वर्ष शिशिर ऋतु आधी बीत जाने पर उसको भी छोड़कर वे अचेलक अर्थात् दिगंबर अवस्था में रहे । कल्पसूत्र आदि ग्रन्थों मे उल्लेख है कि दीक्षा से दो वर्ष पहले भगवान के माता - पिता चल बसे थे । उन्होने बड़े भाई नदीवर्धन से दीक्षा की आज्ञा मांगी थी और उस की आज्ञा न मिलने पर दो वर्ष तक जल साधुवृत्ति में भगवान महावीर रहे थे इसका संकेत मिलता है। दीक्षा के समय भगवान महावीर ने देवदूष्य वस्त्र धारण किया था और १३ महिने बाद उसे गरीब ब्राह्मण को दे दिया था । इसका संकेत भी आचारागं के इसी प्राचीन विवरण से मिल जाता है। - समणे भगवं महावीरे वइरोसभणाराय संघयणे समचउरंस - संठाण संठिते सत्त रयणीओ उड्डुं उच्चत्तेणं हुत्था । स्थानांग सप्तम स्थान, प्रथम उद्देश्य, पृ. ५९९ आचारांग सूत्र : प्रथम श्रुतस्कंध, नवम् उपधान नामक अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002766
Book TitleMahavira Prabandh Kavyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyagunashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy