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________________ हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन नारी जब मातृत्व के गौरवान्वित पद पर सुशोभित होती हैं, तब वह सर्वाधिक श्रेष्ठता प्राप्त कर लेती है । वात्सल्य उसकी निधि हो जाती है, लोकमंगल की भावनाओं से वह उभर उठती है । मातृत्व नारी जीवन की तपस्या का नवनीत होता है । कवियों ने काव्य में नारी रूपों के अन्तर्गत सर्वाधिक महत्ता एवं श्रेष्ठता मातृरुप कों ही प्रदान की है । कवि ने उर्वशी, सीता, त्रिशला, कुन्ती, मेनका आदि नारियों के जीवन का उजागर कर उनकी आदर्श रूप में प्रतिष्ठा की है । कवि डॉ. शर्माजी ने जगत जननी रानी त्रिशलादेवी राजकुमार वर्धमान के प्रति वात्सल्य भाव का सजीव वर्णन किया है. १५८ कवि ने नारी के इन रूपों के उपरान्त नारी के नर्त की रुप को प्रस्तुत किया हैकवि उसके पेशे के प्रति घृणाभाव से नहीं करुणा भाव से ही निहारता है। पेट की भूख वह कला बेंचकर मिटाती है, परंतु दुःख है कि वह किसी की सहानुभूति को प्राप्त नहीं कर पाती । कभी कवि नारी को देवी रूप में निहारता है। कवि युगानुरुप नए सन्दर्भो में उसका मूल्यांकन करता है। नए युग बोध में भी नारी के ग्रामीण एवं संयत रुप को ही कविने श्रेयस्कर माना है । कवि भोगमयी नारी से अधिक त्याग और अनुरागमयी नारी का समर्थक है । उन्हों ने विविध रूपों को अपनाते हुए अपनी संपूर्ण श्रद्धा एवं आस्था उसके मातृत्व में ही व्यक्त की है। कवियों ने काव्य के अन्तर्गत यही उद्बोधन दिया है कि भोग की अपेक्षा त्याग में हीं नारी जीवन की सफलता है । कविने रानी यशोदा का राजकुमार वर्धमान के प्रति समर्पण भावों का यथातथ्य चित्रण काव्य में निरूपित किया है । १. २. कितना सुख मिलता माता को । जब शिशु करता था दुग्ध पान ॥ पुलकन से तन ज्यों कदम कुसुम । वात्सल्यवती थी मुग्ध प्राण ॥ १ *** सार्थकता है किन्तु मोक्ष में, सेवा ही जीवन का सार । सुमन लगे जो प्रेम-शाख में, दिव्य-सुरभिका हो विस्तार ॥ सब जन सुखी रहें जगती के, हो निज उर का अमित प्रसार । स्वामी का उद्देश्य पूर्ण हो, अर्द्धागिन का जीवन सार ॥ २ ***** 'भगवान महावीर' कवि शर्माजी, "शैशवलीला" सर्ग - ४, पृ. ४० 'भगवान महावीर": कवि शर्माजी, "सद् गृहस्थसरिता" सर्ग-७, पृ. ९९ 66 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002766
Book TitleMahavira Prabandh Kavyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyagunashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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