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________________ १५४ हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन दिखाती है, ' इसी प्रकार उपासिका जयन्ती भरी सभा में महावीर से प्रश्नोत्तर करती है २ तो कोशावेश्या अपने आवसमें स्थित मुनि को सन्मार्ग दिखाती है, ३ ये तथ्य इस बात के प्रमाण है कि जैन धर्म में नारी की अवमानना नहीं की गई। चतुर्विध धर्मसंघ में भिक्षुणीसंघ और श्राविका संघ को स्थान देकर निर्ग्रन्थ परम्परा ने स्त्री और पुरुष को समकक्ष ही प्रमाणित किया है। पार्श्व और महावीर के द्वारा बिना किसी हिचकिचाहट के भिक्षुणी संघ की स्थापना की गई। जैनसंघ में नारी का कितना महत्वपूर्ण स्थान था। इसका सबसे बड़ा प्रमाण तो यह है कि उसमें प्रागैतिहासिक काल से वर्तमान काल तक सदैव ही भिक्षुओं की अपेक्षा भिक्षुणियों की और गृहस्थ उपासकों की अपेक्षा उपासिकाओं की संख्या अधिक रही हैं । समवायांग, जम्बुद्वीप-प्रज्ञप्ति, कल्पसूत्र एवं आवश्यक नियुक्ति आदि में प्रत्येक तीर्थंकर की भिक्षुणियों एवं गृहस्थ उपासिकाओं की संख्या उपलब्ध होती है। भगवान ने तो नारी को नर की तरह ही अधिकारिणी कहा। उसमें भी आध्यात्मिक क्षेत्र में ज्यादा। भगवान महावीर के संघ में छत्तीस हजार जितनी विपुल संख्या में स्त्रियों ने दिक्षा ली थी। यह संघ और देश के लिए कितने बड़े सौभाग्य और गौरव की बात थी। आज भी महावीर के संघ में नारी जाति का बाहुल्य है। यदि भारतवर्ष में आज २५०० से अधिक जैन मुनि है तो वही ७००० से भी अधिक साध्वियाँ है। कवि मित्रजी काव्य के अन्तर्गत महावीर कालीन साध्वियाँ, मुनि, श्रावक और श्राविका संघ का वर्णन करते हुए लिखा है - अर्जिका संघ युग का प्रकाश, चंदना प्रकाश के लिए घूमी। श्राविका श्वेतवस्त्रा जेष्ठा, घर घर दीपक घर घर घूमी। बन गई श्राविकायें, लाखों, चन्दना सती की गति फैली। श्रावक अनगिनत कर्मरत थे, चादर न किसी की थी मैली॥५ *** Tai in बंतासी पुरिसोरायं, न सो होइ पसंसिओ। माहणेणं परिचतं धणं आदाउमिच्छसि ॥ -उत्तराध्ययन सूत्र १४, ३८ एवं उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ.२३० (ऋषभदेव केशरीमल संस्था रतलाम-सन् १९३३) भगवती १२/२ जइ वि परिचत्तसंगो तहा वि परिवडइ। महिला संसग्गीए कोसा भंवणूसियवरिसी ।। -भक्तपरिज्ञा गाथा-१२८ कल्पसूत्र, क्रमश: १९७, १६७, १५७ व १३४, प्राकृत भारती, जयपुर, ई. १९७७ “वीरायण' : कवि मित्रजी, “उद्धार'', सर्ग-१३, पृ.३२० ě i Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002766
Book TitleMahavira Prabandh Kavyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyagunashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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