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________________ हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन १४५ महावीर ने ईश्वर को इतना व्यापक बना दिया कि कोई भी आत्मसाधक ईश्वर को प्राप्त ही नहीं करे, वरन् स्वर्ग ही ईश्वर बन जाय । इस भावना ने असहाय, निष्क्रिय जनता के हृदय में, शक्ति, आत्मविश्वास और आत्मबल का तेज भरा। वह सारे आवरणों का भेद कर, एक बारगी उठ खड़ी हुई। अब उसे ईश्वर प्राप्ति के लिए परमुखापेक्षी बन कर नहीं रहना पड़ा। उसे लगा कि साधक भी वही है और साध्य भी वही है। ज्यों-ज्यों साधक तप, संयम और अहिंसा को आत्मसात् करता जायेगा त्यों-त्यों वह साध्य के रुपमें परिवर्तित होता जायेगा। इस प्रकार धर्म के क्षेत्र से दलालों और मध्यस्थोंको बाहर निकालकर महावीरने सही उपासना पद्धतिका सूत्रपात किया। आर्थिक परिस्थिति तीर्थंकर महावीर के समय में भारत में अर्थ संकट नहीं था। उस समय का भारत आज से कहीं अधिक सम्पन्न और सुखी दृष्टिगोचर होता है। पाणिनिकी अष्टाध्यायी, रामायण, महाभारत आदि ग्रन्थों में उन्नत आर्थिक जीवन सम्बन्धी साम्रगी प्राप्त होती प्रस्तुत महावीर प्रबन्ध काव्यों में भी भगवान महावीर के समय में भारत की आर्थिक परिस्थितियों का सुंदर चित्र अंकित किया है स्वर्ण-चांदी-हीर-मुक्ता हार और था धन धान्य का व्यापार था नृपति का राज्य-सद-आचार था प्रजा-वत्सल लुटाता प्यार ।। *** हर खनिज द्रव्य की खानें भी, थी जिसके कोने कोने में। जिस की कृषि ऐसी लगती थी, ज्यों खेत मढे हो सोने में ॥२ * ** नागरिक जन का कि सुललित वेश बन रहे भूपर सभी देवेश "तीर्थंकर महावीर" : कवि गुप्तजी, सर्ग-१, पृ.८ “परमज्योतिमहावीर" : कवि सुधेशजी, सर्ग-१, पृ.५६ २. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002766
Book TitleMahavira Prabandh Kavyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyagunashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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