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________________ हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन १३५ कितना ही सच्चरित्र योग्य एवं प्रभावशाली क्यों न हो, वेद पढना तो दूर, यदि वह कहीं वेदमन्त्र सुन भी ले, तो उनके कानों में उबलता हुआ गरम गरम शीशा भर दिया जाता था। शूद्रों की छाया तक से परहेज किया जाता था। आम रास्तों पर चलने तक की उन के लिए मना ही थी जन्मजात पवित्रता और जातपात तथा ऊँच-नीच की आसुरी सीमाओं ने मानवता के टुकड़े-टुकड़े कर दिये थे। इस प्रकार भगवान महावीर युगीन समाज, जातिगत, श्रेष्ठता, स्वार्थ, संघर्ष और वेमनस्य की भावनाओं से जर्जर और पीड़ित हो रहा था । क्रूर, स्वार्थ और लिप्सा का चित्रण देखिए : हिंसा और असत्य जगत पर अपने पजे गाड़े थे। क्रूर स्वार्थ, लिप्सा और काममानवता के आड़े थे। *** ऐसे समय में राजसत्ता और अपार वैभव को ठोकर मारकर महावीर अकिंचन बन आत्मकल्याण एवं लोककल्याण के लिए साधना के पथ पर बढे चले। साढे बारह वर्ष की कठोर तपस्या के बाद उन्होने क्रान्ति का शंखनाद किया। तथा कथित निम्न वर्ग को गले लगाया और उनमें व्याप्त हीन भावना को समाप्त कर विश्वास का व्यापक सम्बल प्रदान किया। उन्होने स्पष्ट रुप से कहा कि जन्म से कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र नहीं होता, व्यक्ति का कर्म ही उसे ऐसा बनाता है। __ उस समय नारी जाति की अवस्था भी शोचनीय थी नारी जो चार दीवारों में कैद थी। बाजारों में खुल्लेआम नारियों की बोली लगती थी। कवि ने काव्य में नारी की इसी दयनीय स्थिति का वर्णन किया है - भूख-प्यास से पीड़ितनारी नीलामी पर चढती थी अधनंगी काया पर कोड़े। खाती थी और हंसती थी॥ *** "श्रमण भगवान महावीर", कवि योधेयजी, प्रथम सर्ग-३६ २. वही, पृ.३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002766
Book TitleMahavira Prabandh Kavyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyagunashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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