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________________ १३२ हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन सर्वथा ह्रासकाल था । भारत ने प्रजातंत्र का नवीन प्रयोग कर जो कीर्ति प्राप्त की थी, उस प्रजातंत्र का मात्र ढांचा ही शेष रह गया था । प्रजातंत्र में भी अधिनायकवाद का उभरता प्रचंड काला नाग जनता का रक्तपान करने लगा था । प्रजातंत्र की जन्मभूमि वैशाली में जननायक जन से हटकर केवल नायक के आसन पर आशीन हो चुके थे । और तो क्या, राजा और राजा से उपर महाराजा का उच्च आसन भी रिक्त नहीं था, तत्कालीन, प्रजातन्त्रों में । इतिहास महाराजा चेटक को हमारे सामने सर्वाधिकार प्राप्त महाराजा के रुप में ही उपस्थित करता है । स्वयं भगवान महावीर का जन्म ज्ञातृ गणतंत्र के वैभवशाली एक भ्रांत राजकुल में हुआ था । प्रजातन्त्र की अनेक आलोकतंत्रीय खामियों ने, नित्य के होनेवाले उत्पीड़नों ने ही भगवान को तथाकथित प्रजातंत्री जननायकों तथा एक तंत्री निरंकुश राजाओं के विरुद्ध बोलने को विवश कर दिया था । यहाँ तक कि उन्होने अपने भिक्षुओं को राजकीय अन्न तक भी ग्रहण करने का निषेध कर दिया था । उन्होने केवल आनेवाले कठिन भविष्य की ओर तत्कालीन जननायकों का ध्यान ही आकृष्ट नहीं कराया, उन्हें सही रूप में जनप्रतिनिधि के योग्य कर्तव्य - पालन की चेतावनी भी दी। महावीर ने कहा था - कोई कैसा ही महान क्यों न हो, महाआरंभ और महापरिग्रह नरक के द्वार है । ' समग्र भाव से प्रजा के प्रति अनुकम्पाशील होना ही राजा का सही अर्थ में राजत्व है। यदि और कुछ उच्चतर पावन कर्म नहीं कर सकते हो तो कम से कम साधारण आर्य कर्म तो करो । राजनीति के क्षेत्र यह कितना महान उद्बोधन था ! कौन कह सकता है कि वैशाली जनतंत्र का विघटन भगवान महावीर के उक्त साम्य धर्म को यथारुप में ग्रहण न करने कारण ही नहीं हुआ ? यदि वैशाली के जननायक अपने को साम्यभूमि पर उतार पाते, बिखरे जनगण को समधर्मा रूप में अपनाने का साहस अपनाते तो वैशाली का जनमानस कभी विघटित नहीं होता । मगध की राजशक्ति वैशाली को चिरकाल में भी ध्वस्त नहीं कर पाती । सामाजिक परिस्थितियाँ : वर्धमान महावीर क्रान्तिकारी व्यक्तित्व को लेकर प्रगट हुए। उनमें स्वस्थ समाज के निर्माण और आदर्श व्यक्तित्व के निर्माण की तड़प थी । यद्यपि स्वयं उनके लिए समस्त ऐश्वर्य उपलब्ध थे, तथापि उनका मन उनमें नहीं लगा। वे जिस बिंदु पर व्यक्ति और समाज को ले जाना चाहते थे उसके अनुकूल परिस्थितियाँ उस समय न १. कल्पसूत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002766
Book TitleMahavira Prabandh Kavyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyagunashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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