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________________ ११७ हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन बोधक ये सिद्धान्त व्यक्ति, समाज सभी को सम्पन्न बनाते हैं। जैन धर्म में श्रावक और मुनि दोनों व्रत पालन करते हैं । यद्यपि गृहस्थ श्रावक और गृहत्यागी मुनि के लिए उसके पालन का परिमाण अलग अलग है । तथापि पांच पांच जैसे अनिष्टों से बचने की आवश्यकता दोनों के लिए अनिवार्य है। यों कहना अधिक सरल होगा कि जीवन में से बुराईयों को दूर करना और नई बुराईयों को न आने देने का प्रयास ही व्रत है। व्रत अर्थात् उन नियमों का स्वीकार करना, जिससे अन्य प्राणियों के प्रति क्रूर व्यवहार न हो। कवि ने काव्य के अन्तर्गत महावीर की वाणी का स्पष्टीकरण करते हुए महाव्रत और अणुव्रत का विश्लेषण किया है - ग्रहस्थ को अणुव्रत का पालन, सादु महाव्रत का निर्वाह । कोई जाति और कुल कोई, पालन की यदि उर में चाह॥ सुसंस्कृत समाज हेतु की, अणुव्रत का उत्तम आधार। स्वशासित जीवन हो जाता, बन जाते हैं उच्च विचार॥ *** अपरिग्रही बचता पापों से, पुण्यों का करता संचय। इस प्रकार व्यक्तिगत जीवन, बनता शुद्ध बुद्ध सविनय ॥ व्यक्ति के उज्जवल बननेसे, बनता है उज्ज्वल समाज। देश सुधरता, विश्व सुधरता, विस्तृत होता धर्मराज ॥२ *** इस प्रकार अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, परिग्रह, परिमाण ये पांच अणुव्रत और दिग्वत, देशव्रत, अनर्थ दण्डव्रत ये तीन गुणव्रत सामायिक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोग परिमाण, अतिथि संविभाग ये चार शिक्षाव्रत हैं। इन समस्त बारह व्रतों का पालन गृहस्थ को करना चाहिए। षद्रव्यः जैन दर्शन में जीवादि छ तत्व अर्थात् षट् द्रव्य माने गये हैं। इन्हीं छः तत्वों से निर्मित जगत की रचना के बारे में स्पष्ट लिखा है कि धर्मा धर्म अजीव जीव आकाश काल है मूल द्रव्य। एक सचेतन जीव शेष तब चेतन हीन अजीव सेव्य । १ "भगवान महावीर" : कवि शर्माजी, तीर्थंकर चिंतन, सर्ग-२१, पृ.२२७ वही, पृ.२२८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002766
Book TitleMahavira Prabandh Kavyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyagunashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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