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________________ २६३ ॥ चतुर्थो विमर्शः ॥ सुधी ईशानमां होय जे त्यारे अग्नि खूणामांत्रण मास सुधी नानि होय बे, नैर्शत्यमांत्रण मास सुधी पुत्र होय , अने वायव्य खूणो खाली होय जे. ते खाली खूणो खात विगेरेमा श्रेष्ठ बे. ज्यारे वीजात्रण मास सुधी वायव्यमां मुख होय जे त्यारे ईशानमा नानि, अग्निमां पुत्र अने नैईत्य खाली होय . ए प्रमाणे विलोमपणाए करीने शेषनाग फरे बे. तेमां वृषादिक त्रण संक्रांति सुधी ईशानमां मुख होय मे, सिंहादिक त्रण संक्रांति सुधी वायव्यमा मुख होय , वृश्चिक विगेरे त्रण संक्रांति सुधी नैत्यमा मुख होय , तश्रा कुंजादिक त्रण संक्रांति सुधी अग्निमां मुख होय . ए प्रमाणे “विदित्रयं स्पृशस्तिष्ठेत् स्ववक्त्रनानिपुचकैः । शेषस्तत्रितयं त्यक्त्वा नूखातकार्यमाचरेत् ।। नाजौ च म्रियते नार्या धनं पुछे मुखे पतिः। इति मत्वा शिलान्यासे नूखाते तत्रयं त्यजेत् ॥" "शेषनाग पोतानां मुख, नानि अने पुढे करीने त्रण विदिशानो स्पर्श करीने रहे जे, तेथी ते त्रणेनो त्याग करीने पृथ्वीन खातकर्म करवू, केमके ते शेषनी नानिमां खातकर्म करवाथी घरधणीनी स्त्री मरण पामे बे, पुचमां खोदवाथी धननो नाश थाय जे, अने मुखे खोदवाथी घरधणी मरण पामे बे. या प्रमाणे जाणीने नूखातने विषे शिलास्थापन करती वखते ते त्रणे अवयवोनो त्याग करवो.” . ___ हवे आयादिक कहेवानुं तात्पर्य कहे .समाधिकव्ययं कर्तुः समनाम यमांशकम् । विरुधरा शितारं च विनाऽन्यवेश्म शोजनम् ॥ ७॥ अर्थ-सम अथवा अधिक व्ययवाळु, कर्तानी समान नामवाळु, यम अंशवाळु तथा विरुष्प राशि अने तारावाळु घर मूकीने बीजं घर सारं . __ जे घरमां श्रायनी समान ( जेटलो) अथवा अधिक व्यय आवतो होय तो ते घर त्याग करवा लायक . ए रीते सर्वत्र जाणवू. आम कहेवाश्री व्यय करतां श्राय अधिक होय तो ते श्रेष्ठ , एम जाणवू. ते आय पण विषम (एकी) होय तो ते स्थिर होवाथी अति श्रेष्ठ बे. ते विषे लक्ष कहे जे के-“कुर्यात् स्थिराधिकायं स्वयोनिनं शुचतारांशम्"। "स्थिर अने अधिक आयवाळु पोतानी योनिना नत्रवाळु तथा शुछ तारा श्रने अंशवाळु घर करवं." तथा जे घरनुं नाम एटले तेना अक्षरो कर्ताना नामनी तुट्य होय ते घर पण त्याग करवा लायक जे. जे घरमां यमना अंशनी उत्पत्ति थती होय, जे घरनी राशिनी साथे घरधणीनी राशिनुं शत्रु षमाष्टक के बीयाबारमुं उत्पन्न अतुं होय, तथा जे घरनी तारा घरधणीनी ताराथी त्रीजी, पांचमी के सातमी होय, तेमज मूळ श्लोकमां Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002765
Book TitleArambhsiddhi Lagnashuddhi Dinshuddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdayprabhdevsuri, Haribhadrasuri, Ratshekharsuri
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1918
Total Pages524
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size12 MB
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