SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 218
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०२ ॥थारंसिधि॥ (पचमां ) कोइ एक प्रदेशमां वधारे मुदत रहे तो ते बाबतमां अन्यना मतो था प्रमाणे जे.-"जो कोइ स्थाने त्रण दिवस सुधी रहे तो पनी आगळ सारा मुहूर्तमां बळ तश्ने ज चालवु.” एम गौतम कहे . “पांच दिवस रहे तो फरीथी मुहूत्त लेवू.” एम अत्रि कहे . "सात दिवस रहे तो बीजुं मुहूर्त लेवू." एम वामन कहे . लस पण कहे जे के “योधानामवि(नुरोधेन तोयेन्धनवशेन वा । त्र्यादिरात्रोपितां सेनां पुनर्जप्रेण योजयेत् ॥ १॥" "योधाउना अनुसरवावमे करीने ( तेनी चाथी) अथवा जळ अने इंधनना कारपथी त्रण, पांच के सात दिवस सुधी रहेली सेनाने फरीथी कट्याण साथे जोमवी एटले के प्रयाण वखते फरीश्री शुभ मुहूर्त लेवं." परंतु या सर्वे मतो अयोग्य , केमके "प्रथम सारं मुहूर्त निश्चय करीने चाले पछी घेर न आवे त्यांसुधी तेनुं ते ज खग्न-मुहूर्त चाले जे एम घणानो मत .” ए प्रमाणे रत्नमाला नाष्यमां का . तथा एक सारा मुहर्ते तथा शुल लग्ने चालेखाए एक ज यात्रा करीने पाग फरवू, पण प्रथमना लग्न मुहूर्त्तना बळे करीने ज बीजी यात्रा पण न करवी. ते विषे लहस कहे जे के-"संसाध्यैकां यात्रां वीर्यादवहीयते ग्रहः सर्वः" । "एक यात्राने सिद्ध करीने सर्व ग्रहो बळहीन थाय जे.” वहाणना प्रस्थानने श्राश्रीने व्यवहारसारमां था प्रमाणे लख्युं . "रेवत्यां तु समुत्थानं श्रेष्ठं स्वामिहितावहम् । अश्विन्यां गतगामित्वं नौनवेद्बहुरत्ननृत् ॥ १॥ अनुराधामृगे चैव धनिष्ठाहस्तवैष्णवे । प्रस्थापयेत्ततो नावं सर्वकामसमृधये ॥२॥ पूर्वाफगुनिसौम्ये च हस्तचित्रासु वैष्णवे। वादित्रमंगलैश्चापि पोतं संचारयेजाले ॥३॥" "रेवती नक्षत्रमा वहाण तैयार करवु श्रेष्ठ ने तथा स्वामीने हितकारक ले. अश्विनीमां ते (वहाण )मां करीयाणां नरवायी वहाण घणां रत्नोथी पूर्ण थाय ने, अनुराधा, मृगशिर, धनिष्ठा, हस्त, श्रवण, एटलां नत्रोमां वहाणनुं प्रस्थान करवू ए सर्व कामनी सिधिने माटे , तथा पूर्वाफाल्गुनी, मृगशिर, हस्त, चित्रा, अने श्रवण नक्षत्रमा वाजिन मंगळे करीने वहाणने जळमां चलाववं ए शनकारक." मळ श्लोकमां सीमा शब्द लख्यो ने तेथी पांचमे विगेरे दिवसे चालवू ज जोइए एवो नियम कर्यो . हवे यात्रामां शुज एवां नव नदत्रोमांनां कयां नक्षत्रोमा प्रस्थान करेलो पुरुष पांच दिवस पहेखां पण चाली शके ? ते कहे . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002765
Book TitleArambhsiddhi Lagnashuddhi Dinshuddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdayprabhdevsuri, Haribhadrasuri, Ratshekharsuri
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1918
Total Pages524
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy