SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 177
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४१ ॥ तृतीयो विमर्शः॥ एवं निरन्तरो येषां दम्पतीनां नवेषेधः। तेषां मृत्युने संदेहः सान्तरस्त्वरूपःखदः॥३॥" "अश्विनीना पहेला पादनी पंक्तिथी श्रारंजीने वार नामी (रेखा )ए करीने श्रा चक्र श्राळेखवू, तेमां वर वहुनो वेध जोवो. तेमां जे दंपतीनो वेध श्रांतरारहित होय तो अवश्य तेमनुं मृत्यु थाय अने जो आंतरा सहित एटले घर होय तो अटप फुःखदायी थाय." __वळी ते ज ग्रंथमां "दंपतीनी जेम देवता, मंत्र तथा गुरु शिष्यना योगमां पण नामीवेध अशुल ," एम कडं बे. ते था प्रमाणे. “एकनामीस्थिता यत्र गुरुमंत्रश्च देवता। तत्र देषं रुजं मृत्यु क्रमेण फलमादिशेत् ॥ १॥" "ज्यां गुरु, मंत्र अने देवता एक नामीमा रह्या होय त्यां अनुक्रमे क्षेष, व्याधि अने मृत्युरूप फळने कहे.” प्रथम कहेला सर्वे मैत्रीना प्रकारोमा श्रा नामीवेध बळवान् ने. ते विषे कह्यु ले के "सदा नाशयत्येकनामीसमाजो नकूटादिकान् सर्वनेदान् प्रशस्तान्"। "नत्र, (राशि) कूट विगेरे सर्व शुल नेदोनो एक नामीवेध ज नाश करे ." हवे तारामैत्री कहे जे.येषु गुरुशिष्यादेः प्रीतिहेतोः परस्परम् । त्रिपञ्चसप्तमी तारां सर्वत्र परिवर्जयेत् ॥ २५॥ अर्थ-परस्पर प्रीतिना हेतुरूप गुरु शिष्यादिकनां घोने परस्पर त्रीजी, पांचमी भने सातमी तारा सर्वत्र वर्जवी. एटले के बेमांथी एकनी पण तारा त्रीजी, पांचमी के सातमी होय तो तेमनी तेवी (सारी) प्रीति अती नश्री. ( नव नव तारानी त्रण ठळी प्रथम कही नेते अहीं जाणवी.) तेमां पण विशेषे करीने गुरु, वर, राजादिक स्वामी विगेरेनी तारा त्रीजी, पांचमी के सातमी न ज होवी जोश्ए. कह्यु बे के "नीरुनादचल ७ पञ्च ५ तृतीया ३ शौकवैर विपदे वरताराः”। "स्त्रीना नक्षत्रथी वरनी तारा सातमी, पांचमी के त्रीजी होय तो ते अनुक्रमे शोक, वैर अने विपत्तिने माटे बे." श्रा तारामैत्रीनुं प्रधानपणुं जे. ते विषे दैवज्ञवक्षनमां कडं ले के "पुंस्त्रीराशीशयोमैत्र्यामेकेशत्वे च वश्यने। षमष्टमादिष्वपि स्यात्तारामैच्या करग्रहः॥१॥" "वर कन्यानी राशिना स्वामीउनी मैत्री बता, अश्रवा तेमनुं एक स्वामीपणुं उतां, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002765
Book TitleArambhsiddhi Lagnashuddhi Dinshuddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdayprabhdevsuri, Haribhadrasuri, Ratshekharsuri
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1918
Total Pages524
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy