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________________ ५० : जैन भाषादर्शन स्फोटवाद और उसकी समालोचना' स्फोटवाद पूर्वपक्ष भाषा दर्शन के क्षेत्र में स्फोटवाद वैयाकरणिकों की एक प्रमुख अवधारणा है । व्युत्पत्ति के अनुसार जिससे अर्थ-प्रतीति हो उसे स्फोट कहते हैं (स्फुटति अर्थोयस्मात् स स्फोटः) । वस्तुतः पद या वाक्य को सुनकर पद या वाक्य के वाच्यार्थ का जो एक समन्वित समग्र चित्र हमारे सामने प्रस्तुत होता है वही स्फोट है । स्फोट पद या वाक्य के वाच्यार्थ को प्रकट करनेवाला तत्त्व है । वैयाकरणिकों के अनुसार पद या वाक्य के वाच्यार्थ का बोध वर्ण-ध्वनियों से नहीं होता अपितु वर्णों की उन ध्वनियों के पूर्ण होने पर स्वतः ही प्रकट होता है । 'गो' शब्द का वाच्यार्थं गकार, ओकार और विसर्जनीय के योग से बनी हुई वह ध्वनि नहीं है, जो श्रोतृ से सुनाई देती है, अपितु इन ध्वनियों के श्रवण के साथ जन्मा एक मानसबोध है। इसे हम बुद्धयर्थ भी कह सकते हैं । पतंजलि ने इस बात को एक उदाहरण से भी स्पष्ट किया है । वे कहते हैं कि पद या वाक्य के अन्तिम वर्ण का उच्चारण होते ही वस्तु का जो अखण्ड चित्र सामने आ जाता है वही स्फोट है । उनके अनुसार ध्वनि अनित्य है, वह उत्पन्न होकर नहीं रहती है, अतः वह अर्थबोध कराने में असमर्थ है, क्योंकि वह वाच्यार्थ के संकेतकाल में नष्ट हो जाती है । वस्तुतः ध्वनि को सुनकर जो अर्थबोध होता है वही स्फोट है । दूसरे शब्दों में जिससे अर्थ का प्रकटन होता हैं वही स्फोट है और यह स्फोट शब्द ध्वनि से भिन्न है । शब्द के दो पक्ष हैं- (१) ध्वनि और (२) स्फोट । ध्वनि क्रमशः होती है, प्रत्येक वर्ण की ध्वनि से एक प्रकार का संस्कार उत्पन्न होता है । उस संस्कार के सहकृत अन्त्य वर्ण के श्रवण से एक मानसिक पद की प्रतीति उत्पन्न होती है, इसी का नाम पद-स्फोट है । इसी प्रकार वाक्य के सन्दर्भ में भी अन्तिम पद के श्रवण से एक मानसिक वाक्य की प्रतीति होती है, यही वाक्यस्फोट है । स्फोट वाच्यार्थ का आन्तरिक या बौद्धिक पक्ष है । न्यायकुमुदचन्द्र में आचार्य प्रभाचन्द्र भी वैयाकरणिकों का पूर्वपक्ष प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि वर्ण, पद और वाक्य अर्थ के प्रतिपादक नहीं हैं क्योंकि वे ध्वनिरूप हैं किन्तु स्फोट ही अर्थ का प्रतिपादक है। अर्थ की प्रतीति में हेतु वर्ण ध्वनि नहीं, अपितु स्फोट नामक तत्त्व ही है । ध्वनि तो अनित्य है जबकि स्फोट नित्य है । स्फोटको यदि अनित्य माना जायेगा तो उससे कालान्तर और देशान्तर में गो शब्द को सुनकर उसके वाच्यार्थ की प्रतीति नहीं होगी, क्योंकि संकेतरहित शब्द से अर्थ की प्रतीति होना असंभव है । १. विस्तृत विवेचन के लिए देखें (अ) न्यायकुमुदचन्द्र ( प्रभाचन्द्र ) - सं० महेन्द्रकुमार, पृ० ७४५-७५६ । (ब) प्रमेयकमलमार्तण्ड —सं० महेन्द्रकुमार, पृ० ४५१-४५ ७ । (स) जैन न्याय, पं० कैलाशचन्दजी, पृ० २६७-२७३ । (द) भाषातत्त्व और वाक्यपदीय, पृ० १४९. (ई) The Problem of Meaning in Indian Philosophy ( RC Pandeya ), Chapter x, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002763
Book TitleJain Bhasha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year1986
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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