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________________ प्राक्कथन जिसने रागद्वेष-कामादिक जीते, सब जग जान लिया , सब जीवों को मोक्षमार्ग का, निस्पृह हो उपदेश दिया। बुद्ध, वीर, जिन, हरि, हर, ब्रह्मा या उसको स्वाधीन कहो , भक्तिभाव से प्रेरित हो यह, चित्त उसी में लीन रहो ॥ -युगवीर जैनधर्म की ईश्वर सम्बन्धी परिकल्पना प्रचलित मान्यता से सर्वथा भिन्न है। ईश्वर, महेश्वर, परमेश्वर आदि शब्दों का श्रवण करने पर सामान्यतः जो छवि उभरती है वह किसी ऐश्वर्यसम्पन्न, सर्वशक्तिमान्, सर्वोच्च अधिकारी, कर्ता-धर्ता की ही होती है, जो अनादिकाल से संसार से सर्वथा असम्पृक्त है । सांसारिक बन्धनों और कर्मों तथा वासनाओं को निमूल कर देने पर उसे ईश्वरत्व उपलब्ध नहीं हुआ है अपितु वह तो सदा से ही इन सब बन्धनों से सर्वथा मुक्त है अतः वह सबसे महान् है, सबका ज्ञाता है, सृष्टि का निर्माता होने के कारण अनादि है किन्तु जैन धर्म ऐसे किसी अनादिसिद्ध ईश्वर की सत्ता से सर्वथा इन्कार करता है और अवतारवाद में तो उसका कतई विश्वास नहीं है। जैन मान्यता के अनुसार यदि ईश्वर है तो वह एक नहीं बल्कि अनन्त हैं और आगे भी अनन्तकाल तक होते रहेंगे क्योंकि जैन सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक आत्मा की अपनी स्वतन्त्र सत्ता है और -पांचFor Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002760
Book TitleMahadev Stotram
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSushilmuni
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandiram Sirohi
Publication Year1985
Total Pages182
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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