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________________ ४१-४२ ] एकोनविंशः सर्गः ९०७ रागश्च रोषश्च हृदन्धकारोऽरिः स्पष्टमेतत्रिपुरोक्तकारोः । समस्ति यो विश्वजनस्य तातस्तस्याप्युमाचेष्टितमाप्य जातः ॥४१॥ रागश्चेत्यादि-रागः प्रीतिभावो रोषो वैरभावो हृदश्चेतसश्च योऽन्धकारोऽज्ञानभाव एतेषां त्रयाणां पुराणां स्थानानां मध्य उक्ता कथिता या कारुश्चेष्टा तस्या मरिर्वैरो। तथा यो विश्वजनस्य समस्तस्यापि लोकस्य तातः पितृरूपः समस्ति तस्य लोकपितामहस्योमायाः कोश्चेिष्टितमाप्य पुनर्जातः सम्भूतः, त्रिजगद्गुरोस्तीर्थकरपरमदेवस्य कोति श्रुत्वा शिष्यो बभूवेति यावत् । त्रिपुरारि म रुद्र उमा च तस्याः स्त्री पार्वती विनोववशादात्ममलपरिकरमादाय गणेशमारचितवतीति लोककिंवदन्तीमाश्रित्य तत्प्रतिवादरूपेणोपर्युक्तमुक्तवान् ॥४१॥ मुखं विशालं करिवद्विभाति तथोदरं तुन्दिलमेकजाति । विश्वस्य वातप्यिणुरेव यस्मिस्तस्मै गणेशाय नतोऽहमस्मि ॥४२॥ मुखमित्यादि-यस्य किल गणेशस्य मुखं करिवद्धस्तिसदृशं विशालं विभाति तथा चोदरमपि यस्य तुन्दिलं पृथुलाकारमेकाद्वितीयानन्यसदृशी जातिराकृतिर्यस्य तदेकजाति विभाति । यस्मिन्मुखे चोदरे च विश्वस्य समस्तसंसारस्यापि च वार्ताणुरेव स्वल्प इव भवति, तस्मै सुबहुविशालमुखायातिबृहदुदराय विश्ववाविदिने गणेशायाहं नतो विनयशीलोऽस्मि भवामि खलु । अहो किलामुकस्य मस्तकं किमुतास्त्यपि तु हस्तिनः, अर्थ-राग, द्वेष और हृदयका अज्ञानान्धकार इन त्रिपुर-तीन स्थानों सम्बन्धी शिल्प-चेष्टाके जो अरि-शत्रु हैं, तथा समस्त लोकके जो पिता तुल्य हैं, ऐसे तीर्थंकर परमदेवकी उमा-कीर्तिकी चेष्टाको प्राप्त कर जो उत्पन्त हुए थे, वे गणधर हैं, वे ही गणेश हैं ।।४१॥ ___ अर्थ-जिनका मुख हाथीके मुखके समान विशाल है तथा उदर एक अद्वितीय जातिका इतना स्थूल है कि जिसमें समस्त संसारको वार्ताएँ अणुरूप ही होती हैं, उन गणेशके प्रति मैं विनत हूं-उन्हें नमस्कार करता हूँ। ___ भावार्थ-लोकमें गणेशको गजानन-हाथीके समान मुखवाला तथा लम्बोदर-स्थूल उदर वाला कहा जाता है, परन्तु परमार्थसे मनुष्य की आकृति ऐसी नहीं होती। यहाँ हाथी की सूड और विशाल वक्तृत्व से यह बताया गया है कि वे श्रेष्ठ वक्ता ही नहीं हैं, वक्तृत्वके साथ कर्तृत्व शक्तिसे भी संपन्न हैं, अर्थात् निर्भय होकर जैसा स्पष्ट कहते हैं वैसा करते भी हैं, तदनुरूप आचरण भी करते हैं। स्थूल उदरसे यह सिद्ध किया गया है कि उनके उदरमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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