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________________ भोगसे योग, परिग्रहसे त्याग तथा वीरतासे शान्तिमयताकी ओर ले जानेवाली यह एक आदर्श कथा है । यह जयोदय काव्य अट्ठाईस सर्गों में निबद्ध है । महाकवि दण्डीके अनुसार महाकाव्यके लिए सर्गबद्धता अनिवार्य आवश्यकता मानी जाती है । धीर, उदात्त गुणोसे युक्त कोई कुलीन क्षत्रिय अथवा देवता नायक होता है । वीर, शृङ्गार अथवा शान्त-इनमेंसे अन्यतम रसको प्रधान या अङ्गो होना चाहिए। अन्य रसोंको गौण रूपसे रखा जा सकता है। इतिहास प्रसिद्ध कथानक होना चाहिए। किसी सज्जनके चरितवर्णनके रूपमें भी कथानक रखा जा सकता है। प्रत्येक सर्गमें एक ही प्रकारके छन्दमें रचना की जा सकती है। परन्तु सर्गान्तमें वृत्तपरिवर्तित कर दिया जाता है। सर्ग न तो बहुत लम्बे होने चाहिए और न बहुत छोटे । महाकाव्यत्वके लिए सर्गो को संख्या आठसे अधिक अवश्य हो । सन्तिमें आगामी कथानक इङ्गित हो । महाकाव्यमें प्राकृतिक दृश्योंका वर्णन आवश्यक है। इनमें सर्योदय, सन्ध्या , प्रदोष, चन्द्रोदय, रात्रि, अन्धकार, वन, पर्वत, समुद्र, ऋतू इत्यादि वर्णनीय होते हैं। मध्य-मध्यमें वोररसके उपक्रम में युद्ध, मन्त्रणा एवं शत्रुपर आक्रमण इत्यादिका साङ्गोपाङ्ग निरूपण आवश्यक माना जाता है। नायक एवं प्रतिनायक का संघर्ष महाकाव्यत्वके लिए आवश्यक प्रतिपाद्य है। महाकाव्यका प्रधान उद्देश्य धर्म एवं न्यायको विजय तथा अधर्म एवं अन्यायका पराभव भी होना चाहिए। उक्त लक्षणोंसे लक्षित जयोदय निर्विवाद रूपसे महाकाव्यकी पंक्तिमें स्थापित होता है। काव्यके स्थूलरूपसे दो भेद किये जा सकते हैं-:. भावप्रधान अथवा व्यक्तित्वप्रधान तथा २. विषयप्रधान । प्रथममें कविकी एकमात्र आत्माभिव्यक्ति रहती है। दूसरे प्रकारके काव्यमें कोई देश अथ वा समाज प्रतिपाद्य बनता है। इसका प्रत्यक्ष सम्बन्ध बाह्य जगन्के साथ रहता है। उक्तका वर्णन होनेके कारण इस प्रकारका काव्य वर्णनात्मक बनता है। कवि बाह्य जगत्की अन्तःस्थलीमें बैठकर उसके साथ अपना रागात्मक सम्बन्ध स्थापित करता है । यह किसी एक कविकी रचना न होकर देश अथवा जातिको रचना होती है। इसके प्रणयनमें पौराणिक कथाओंकी सहायताका अधिक आश्रय रहता है । इसमें किसी एकका दृष्टिकोण स्थापित नहीं होता अपितु एक जाति अथवा युगका प्रतिफलन हुआ करता है। जयोदयमहाकाव्यके कथानकका पल्लवन पौराणिक कथानकको लेकर चलता है। इस श्रेणीकी रचनाओंकी अन्तरात्मासे एक समग्र युग अपने हृदय और अभिज्ञत्वको प्रकाशित करता है और उन्हें सदाके लिए समादरणीय बना देता है। जो महाकवि इस श्रेणीकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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