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जयोदय-महाकाव्यम् हर्षयन् एव षष्ठोत्तरो दशमः षोडश इत्यर्थः स्वरसेन स्वाभाविकरीत्या समाप्ति गतः प्राप्तः॥८६॥
करने वाला यह सोलहवाँ सर्ग अपनी स्वाभाविक गतिसे समाप्तिको प्राप्त हुआ ॥८६॥
इस प्रकार वाणीभूषण ब्रह्मचारी भूरामलके द्वारा रचित जयोदय काव्यमें सहृदय मनुष्योंके मनको प्रसन्न करने वाला सोलहवां सर्ग समाप्त हुआ।
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