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________________ २४ पट्टावली-पराग भद्र ऋषि लवण ऋषि भोमाजी जगमाल ऋषि सर्वा स्वामी रूपजी जीवाजी कुवरजी और श्रीमलजी के नाम लिखकर उनको प्रणाम करते हैं। इस लेख से प्रमाणित होता है कि लंकागच्छ वालों ने अपना सम्बन्ध वृद्धपोषालिक पट्टावली से जोड़ा था, परन्तु उनमें से निकले हुए धर्मदासजी लवजी और धर्मसिंहजी के बाद उनके अनुयायियों में अनेक परम्पराएं और आम्नाय स्थापित हुए। इन प्राम्नायों के अनुयायी स्थानकवासी साधु अपना सम्बन्ध प्रसिद्ध अनुयोगधर श्री देवद्धिगरिण क्षमा-श्रमण से जोड़ना चाहते हैं, इसके लिए उन्होंने कल्पित नाम गढ़कर अपना सम्बन्ध जोड़ने का साहस भी किया है, परन्तु इसमें उनको सफलता नहीं मिली, क्योंकि लौकागच्छ वालों ने तो, ज्ञानचन्द्रसूरि तक के पूर्वाचार्यों को अपने पूर्वज मान कर सम्बन्ध जोड़ा था और वह किसी प्रकार मान्य भी हो सकता था, परन्तु स्थानकवासी समाज के नेता ५२५ वर्ष से अधिक वर्षों को कल्पित नामों से भर कर अपने साथ जोड़ते हैं, यह कभी मान्य नहीं हो सकेगा। इस समय हमारे पास स्थानकवासो-सम्प्रदाय की चार पट्टावलियां मौजूद हैं - (१) पंजाबी स्थानकवासी साधुओं द्वारा व्यवस्थित की गई पट्टावली। (२) अमोलक ऋषिजी द्वारा संकलित । (३) कोटा के सम्प्रदाय द्वारा मानी हुई पट्टावली और (४) श्री स्थानकवासी साधु श्री मणिलालजी द्वारा व्यवस्थित की हुई पट्टावली। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002753
Book TitleLaunkagacchha aur Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherKalyanvijayji
Publication Year
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size5 MB
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