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________________ १३४ वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना कि ५४४ में दीक्षित होनेवाले आर्यरक्षितजी ५३३ में भद्रगुप्त की निर्यामणा किस तरह करा सकते हैं 24 आर्यरक्षित जी युगप्रधान बनते हैं और ५९७ पर्यंत १३ वर्ष तक वे युगप्रधान पद पर रहते हैं । वालभी थेरावली में ही आर्य रक्षित का सामान्य श्रमण पर्याय ४० वर्ष का लिखा है, ये ४० वर्ष ५८४ में से निकाल देने पर ५४४ वर्ष बचेंगे जो कि आर्य रक्षितजी का दीक्षा समय होगा । ८५. यह असंगति उपाध्याय धर्मसागरजी के भी लक्ष्य में थी पर उनको इसकी संगति करने का कोई रास्ता नहीं सूझा, वे इस शंका को बहुश्रुतों के सुपुर्द करके ही रह गए हैं, सागरजी का उक्त शंकास्थल नीचे दिया जाता है " तत्र श्रीवीरात् त्रयस्त्रिंशदधिकपञ्चशत ५३३ वर्षे श्री आर्यरक्षितसूरिणा श्रीभद्रगुप्ताचार्यो निर्यामितः स्वर्गभागिति पट्टावल्यां दृश्यते, परं दुष्षमासंघस्तव यंत्रकानुसारेण चतुश्चत्वारिंशदधिकपञ्चशत ५४४ वर्षातिक्रमे श्रीआर्यरक्षितसूरीणां दीक्षा विज्ञायते तथा चोक्तसंवत्सरे निर्यामणं न संभवतीत्येतद् बहुश्रुतगम्यम् ॥" - धर्मसागरीय तपागच्छपट्टावली प० ४ । सागरजी की इस शंका का समाधान यही है कि भद्रगुप्त का निर्यामण सं० ५३३ में नहीं पर ५३५ में हुआ था, पट्टावलियों में जो ५३३ वर्ष लिखे हैं वे मतांतर से भद्रगुप्त के युग-प्रधानपद - निक्षेप के हैं, अर्थात् किसी के मत से ५३३ में भद्रगुप्त ने युगप्रधान पद छोड़ा और ५३५ में वे आर्यरक्षित से निर्यामण पाकर स्वर्गवासी हुए, पर हमारे मत से भद्रगुप्त वी० सं० ५३५ तक युगप्रधान रहे थे, उनके बाद १५ वर्ष तक जो श्रीगुप्त नामक युगप्रधान का समय माना गया है वह वस्तुतः प्रक्षिप्त है । इसलिये प्रस्तुत गणना में से इसे निकाल देना चाहिए, ऐसा करने पर फलितार्थ-स्वरूप वी० सं० ५३५ में भद्रगुप्त का स्वर्गवास तथा आर्य वज्र का युगप्रधान पद, ५७१ में आर्यवज्र का स्वर्गवास तथा आर्य रक्षित का युगप्रधान पद और ५८४ में आर्य रक्षित का स्वर्गवास तथा पुष्यमित्र का युगप्रधानपद आयगा । माथुरी वाचनानुसारी आवश्यक निर्युक्ति में आर्य रक्षित का स्वर्गवास वीर सं० ५८४ में ही लिखा है । आर्य रक्षितजी का कुल श्रमणत्व पर्याय ५३ वर्ष का था इसलिये पूर्वोक्त ५८४ में से ५३ वर्ष निकाल देने पर उनका दीक्षा समय वीर सं० ५३१ में आयगा, इस हिसाब से आर्य रक्षित ने वी० सं० ५३० में दीक्षा ली और अपने ही दीक्षागुरु तोसलिपुत्राचार्य के पास ५ वर्ष तक अभ्यास करके सं० ५३५ में वे वज्र स्वामी के पास अभ्यास करने के लिये निकले, बीच में उज्जयिनी में उन्हें भद्रगुप्त मिले और उनको निर्यामण कराया, इस प्रकार १३ वर्ष का क्षेपक प्रस्तुत गणना में से निकाल देने पर उपाध्याय धर्मसागरजी की बहुश्रुतगम्य शंका का निराकरण स्वयं हो जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002752
Book TitleVir Nirvan Samvat aur Jain Kal Ganana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2000
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size8 MB
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