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________________ वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना १११ इकट्ठा किया और दुभिक्षवश नष्टावशेष आगम सिद्धांतों का उद्धार शुरू किया। वाचक नागार्जुन और एकत्रित संघ को जो जो आगम और उनके अनुयोगों के उपरांत प्रकरण ग्रंथ याद थे वे लिख लिए गए और विस्तृत स्थलों को पूर्वापर संबंध के अनुसार ठीक करके उसके अनुसार वाचना दी गई । इस सिद्धांतोद्धार और वाचना में आचार्य नागार्जुन प्रमुख स्थविर थे इस कारण से इसे "नागार्जुनी वाचना" भी कह सकते हैं । ७४. कथावली में माथुरी और वालभी वाचना के संबंध में एकत्र उल्लेख करते हुए आचार्य भद्रेश्वर सूरि लिखते हैं कि 'मथुरा में स्कंदिल नामक श्रुतसमृद्ध आचार्य थे और वलभीपुर में नागार्जुन । उस समय में दुष्काल पड़ने पर उन्होंने अपने साधुओं को भिन्न भिन्न दिशाओं में भेज दिया । किसी तरह दुष्काल का समय व्यतीत करके सुभिक्ष के समय में फिर वे इकट्ठे हुए और अभ्यस्त शास्त्रों का परावर्तन करने लगे, तो उन्हें मालूम हुआ कि प्राय: वे पढ़े हुए शास्त्रों को भूल चुके हैं । यह दशा देख कर आचार्यों ने श्रुत का विच्छेद रोकने के लिये सिद्धांत का उद्धार करना शुरू किया । जो जो आगम पाठ याद था वह वैसे ही स्थापन किया गया और जो भूला जा चुका था वह स्थल पूपिर संबंध देखकर व्यवस्थित किया गया ।' देखो कथावली का मूललेख "अत्थि महुराउरीए सुयसमिद्धो खंदिलो नाम सूरी, तहा वलहिनयरीए नागज्जुणो नाम सूरी । तेहि य जाए वरिसिए दुक्काले निव्वउ भावओवि फुठ्ठि (?) काऊण पेसिया दिसोदिसिं साहवो गमिउं च कहवि दुत्थं ते पुणो मिलिया सुगाले, जाव सज्झायंति ताव खंडुखुरुडीहूयं पुव्वाहियं । तओ मा सुयवोच्छित्ती होउ (उ) त्ति पारद्धो सूरीहिं सिद्धंतुद्धारो। तत्थवि जं न वीसरियं तं तहेव संठवियं । पम्हटुट्ठाणे उण पुव्वावरावडंतसुत्तत्थाणुसारओ कया संघडणा ।" -कथावली २९८ । इसी से मिलता जुलता इस विषय का उल्लेख मलयगिरि सूरि कृत ज्योतिषकरंडक टीका में भी उपलब्ध होता है, जिसका सार यह है कि दु:ष्यमानकाल के प्रभाव से आचार्य स्कंदिल के समय में दुष्काल पड़ा जिससे साधुओं का पठन गुणनादि बंद हो गया था, इसलिये सुभिक्ष होने पर 'वलभी' और 'मथुरा' इन दो जगहों में संघ का सम्मेलन हुआ । वहाँ सूत्र और अर्थ के संघटन में परस्पर कुछ वाचनाभेद हो गया, और भूले हुए सूत्र अर्थ को याद करके व्यवस्थित करने में वाचना-भेद का होना था भी अवश्यंभावी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002752
Book TitleVir Nirvan Samvat aur Jain Kal Ganana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2000
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size8 MB
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