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________________ वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना युगप्रधान पद पर विद्यमान थे । इन्होंने २२ वर्ष की अवस्था में दीक्षा ली थी और ४८ वर्ष तक सामान्य श्रमण तथा ३८ वर्ष पर्यंत युगप्रधान पद पर रहकर ये १०८ वर्ष की अवस्था में वी. नि. संवत् ४१४ में स्वर्गवासी हुए थे । माथुरी स्थविरावली के कथनानुसार उपर्युक्त समय भावी आचार्य का नाम 'खंदिल' (स्कंदिल ) नहीं पर संडिल्ल ( सांडिल्य ) था । माथुरी का सांडिल्य (संडिल्ल) या वालभी का खंदिल अनुयोग प्रवर्तक प्रकृत स्कंदिल से भिन्न होने से इनके संबंध में ज्यादा ऊहापोह करना अप्रस्तुत है । १०५ अब हम अनुयोग प्रवर्तक दूसरे स्कंदिलाचार्य के संबंध में यह देखेंगे कि ये आचार्य किस गच्छ और शाखा के थे और इनका अस्तित्व समय क्या था ? वृद्धवादि प्रबंध में आचार्य प्रभाचंद्र लिखते हैं कि विद्याधर आम्नाय में पादलिप्त सूरि के कुल में आचार्य स्कंदिल हुए जो जैन शासन रूपी नंदन वन में कल्पवृक्ष-समान सर्वश्रुत के अनुयोग को अंकुरित करने में मेघ - समान और विद्याधराम्नाय में चितामणितुल्य इष्ट देनेवाले थे । देखो उक्त प्रबंध के निम्नलिखित श्लोक "पारिजातोऽपारिजातो, जैनशासननन्दने । सर्वश्रुतानुयोगार्ह - कन्दकन्दलनाम्बुदः ||४|| विद्याधरवराम्नाये, चिन्तामणिरिवेष्टदः । आसीच्छ्रीस्कन्दिलाचार्य: पादलिप्तप्रभोः कुले ॥५॥" - प्रभावकचरितवृद्धवादिप्रबंध ९१ । इस उल्लेख से ज्ञात होता है कि अनुयोगोद्धारक आर्य स्कंदिल विद्याधर आम्नाय के और पादलिप्त की परंपरा के स्थविर थे । विद्याधर आम्नाय का अर्थ विद्याधरगच्छ है या शाखा अथवा कुल, इसका हम निश्चय नहीं कर सकते, परंतु यह अनुमान कर सकते हैं कि आर्यसुहस्ती के शिष्य सुस्थित सुप्रतिबुद्ध से चले हुए कोटिक गणी की जो ४ शाखाएँ थी, उनमें की दूसरी शाखा का नाम विद्याधरी था । संभवत: सुस्थित- सुप्रतिबुद्ध के दूसरे शिष्य विद्याधर गोपाल से यह शाखा प्रचलित हुई थी और इसकी उत्पत्ति विक्रम पूर्व दूसरी शताब्दी में हुई थी । यही विद्याधरी शाखा पिछले समय में विद्याधरकुल के नाम से प्रख्यात हो गई होगी, जैसा कि 'नाइली' शाखा के संबंध में हुआ है, और यह विद्याधरकुल भी धीरे धीरे विद्याधर गच्छ के नाम से प्रख्यात हो गया होगा जैसा कि नाइल और निर्वृति कुल के विषय में हुआ है । इसलिये यहाँ पर हम 'विद्याधराम्नाय' का अर्थ 'विद्याधर गच्छ' करें चाहे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002752
Book TitleVir Nirvan Samvat aur Jain Kal Ganana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2000
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size8 MB
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