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________________ यद् भाषितं असत्यं स्तेनकृत्यं मया कृतं आसीत् । यत्तिलमात्रसुखार्थं परदाराः सेविता आसन् ॥27॥ यत्पीता सुरा यश्च जनो दम्भितो मया सर्वः । तस्य हि पापस्य फलं यज्जातं एतादृशं दुःखम् ॥28॥ • धर्मरसायन (तब विभंगज्ञान से वह जानता है - ) मन्त्र, औषधि, गय के कारण देव और पितरों के निमित्त से जो मैंने अनेक जीव मारे थे; पारग्रह की मर्यादा न करके जो अतुल सम्पत्ति सञ्चित की थी तथा जीभ के लोभवश मैंने जो मधु, मांस तथा पाँच प्रकार के गूलर आदि उदुम्बर फलों का भक्षण किया था; जो असत्य बोला था, चोरी के कार्य किये थे तथा तिलभर (तुच्छ) सुख के लिए परायी स्त्रियों का सेवन किया था; जो मदिरापान किया था तथा सभी लोगों को धोखा दिया था; उसी पाप का फल है - जो मुझे इस प्रकार का (असहनीय) दुःख मिला है। णाऊण एव सव्वं पुव्वभवे जं कयं महापावं । अइतिव्ववेयणाओ असहंतो णासए सिग्धं ॥29॥ ज्ञात्वैवं सर्वं पूर्वभवे यत्कृतं महापापम् । अतितीव्रवेदनां असहमान: नश्यति शीघ्रम् ||29|| इस प्रकार पूर्वजन्म में जो महापाप किया था उसके बारे में सब कुछ जानकर तथा अत्यन्त तीव्र वेदना को सहने में असमर्थ होकर वह शीघ्र भागने लगता है। सो एवं णासंतो णरइयभयेण असरणो संतो । पइसइ असिपत्तवणे अणेयदुक्खावहे भीमे ||30|| स एवं नश्यन् नारकभयेन अशरणः सन् । प्रविशति असिपत्रवने अनेकदुःखपथे भीमे ||30li इस तरह नारकीय भय से भागता हुआ वह असहाय होकर भयानक तथा अनेक दुःखों के मार्ग - असिपत्रवन अर्थात् एक प्रकार के नरक जहाँ वृक्षों के पत्ते तलवार की धार के समान तीक्ष्ण होते हैं, में प्रवेश करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002751
Book TitleDharmrasayana
Original Sutra AuthorPadmanandi
AuthorVinod Sharma
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size3 MB
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