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________________ पन -स्था -सूत्र ८३ (१३६) रूप में प्रासक्त मनुष्य को कहीं भी कभी किंचिन्मात्र सुख महीं मिल सकता । खेद है कि जिसकी प्राप्ति के लिये मनुष्य महान् कष्ट उठाता है, उसके उपभोग में कुछ भी सुख न पाकर मलेश तथा दुःख हो पाता है । (१३७) जो मनुष्य कुरिसत रूपों के प्रति द्वेष रखता है, वह भविष्य में असीम दुःख-परंपरा का भागी होता है। प्रदुष्टचित्त द्वारा ऐसे पापकर्म संचित किये जाते हैं, जो विपाक-काल में भयंकर दुःखरूप होते हैं । (१३८) रूप-विरक्त मनुष्य ही वास्तव में शोक-रहित है । वह संसार में रहते हुये भी दुःख-प्रवाह से अलिप्त रहता है, जैसे कमन का पत्ता जल से ।। (१३६) रागी मनुष्य के लिए ही उपयुक्त इन्द्रियों तथा मन के विषय-भोग दुःख के कारण होते हैं। परन्तु वीतरागी को किसी प्रकार कभी तनिक-सा दुःख नहीं पहुँचा सकते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org|
SR No.002750
Book TitleMahavira Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1953
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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