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________________ 94 | जिनवाणी ||15,17 नवम्बर 2006 आवश्यक है। इसको करने के लिये कोई जाति बन्धन, कुल आदि का भेद नहीं है। अनुयोग द्वार-सूत्र में आवश्यक छह प्रकार के बताए हैं- सामाइयं, चउवीसत्थओ, वंदणयं, पडिक्कमणं, काउस्सग्गो पच्चक्खाणं। आचार्य हेमचन्द्र ने प्राचीन जैन-परम्परा के अनुसार प्रतिक्रमण का व्याकरण सम्मत अर्थ करते हुए बताया- प्रतीपं क्रमणं प्रतिकमणम् अयमर्थः- शुभयोगेभ्योऽशुभयोगान्तरं क्रान्तस्य शुभेषु एवं क्रमणात्प्रतीपं क्रमणं। इसका भाव है कि- शुभयोगों से अशुभ योगों में गए हुए को पुनः शुभयोग में लौटा लाना प्रतिक्रमण है। आचार्य हरिभद्र ने भी आवश्यक सूत्र की टीका में प्रतिक्रमण की व्याख्या करते हुए तीन महत्त्वपूर्ण प्राचीन श्लोक दिए हैं। १. स्वस्थानाद् यत्परस्थानं, प्रमादस्य वशाद् गतः । तत्रैव क्रमणं भूयः, प्रतिक्रमणमुच्यते ।। २. क्षायोपशमिकाद् भावादौदयिक वशंगतः। तत्रापि च स एवार्थः, प्रतिकूलगमात्स्मृतः ।। ३. प्रति प्रति वर्तनं वा, शुभेषु योगेषु मोक्षफलदेषु । निःशल्यस्य यतेर्यत्, तद्वा ज्ञेयं प्रतिक्रमणम् ।। आचार्य भद्रबाहुस्वामी ने आवश्यकनियुक्ति में प्रतिक्रमण के संबंध में गम्भीर विचार किया है। इसका चार प्रकार से चिन्तन किया जा सकता है पडिसिद्धाणं करणे, किच्चाणमकरणे पडिक्कमणं। ___ असद्दहणे य तहा, विवरीयपरूवणाए ।। - आवश्यक नि. १२६८ १. हिंसा, असत्य, चोरी आदि पाप कर्मों का श्रावक तथा साधु के लिये अणुव्रत एवं महाव्रत के रूप में प्रतिषेध किया गया है, यदि भ्रान्तिवश भी ये कर्म हो जाए तो प्रतिक्रमण करना चाहिये। २. शास्त्र-स्वाध्याय, प्रतिलेखना, सामायिक आदि जिन कार्यों को करने का शास्त्रों में विधान है, उनके न किये जाने पर प्रतिक्रमण करना चाहिए, क्योंकि कर्त्तव्य कर्म को नहीं करना भी एक दोष है। ३. आगम में प्रतिपादित आत्मा आदि अमूर्त तत्त्वों की सत्यता में सन्देह अर्थात् अश्रद्धा उत्पन्न होने पर प्रतिक्रमण करना चाहिये। यह मानसिक शुद्धि हेतु प्रतिक्रमण होता है। ४. हिंसा आदि के समर्थक विचारों की प्ररूपणा करने पर भी प्रतिक्रमण अवश्य करना चाहिये। यह वचन शुद्धि है। आवश्यक सूत्र का दूसरा नाम प्रतिक्रमण है। यह प्रायश्चित्त रूप एवं लगे हुए दोषों के पश्चात्ताप रूप होता है। पश्चात्ताप पाप के प्रक्षय का प्रधान कारण है। पाप कर्मों का तत्काल पश्चात्ताप कर लिया जाए या आलोचना कर ली जाए तो उसके अनुभाग बंध आदि में न्यूनता और शिथिलता हो जाती है। सामान्यरूप से प्रतिक्रमण दो प्रकार का है - द्रव्य प्रतिक्रमण और भाव प्रतिक्रमण। मुमुक्षु साधकों के लिये भाव प्रतिक्रमण ही उपादेय है, द्रव्य प्रतिक्रमण उसका आधार है। केवल यश आदि के लिये दिखावे के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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