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________________ 15,17 नवम्बर 2006 जिनवाणी, 82 अनुयोगद्वार सूत्र में षडावश्यक के गुणनिष्पन्न नाम अर्चना शिष्या साध्वी डॉ. हेमप्रभा 'हिमांशु' अनात्मभाव से आत्मभाव में प्रतिक्रांत होना 'प्रतिक्रमण' है। अनुयोगद्वारसूत्र में षडावश्यकों के सावद्ययोगविरति आदि गुणनिष्पन्न नाम प्राप्त होते हैं। उन्हीं का विवेचन साध्वीजी ने आत्मगुणों से संपृक्त प्रतिक्रमण के रूप में किया है। इस विवेचन से प्रतिक्रमण के हार्द को समझकर तदनुरूप प्रतिक्रमण करने का संदेश प्राप्त होता है। -सम्पादक आगम-साहित्य में अंग सूत्रों के बाद सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान 'आवश्यक सूत्र' को दिया गया है, क्योंकि प्रस्तुत सूत्र में निरूपित सामायिक से ही श्रमण जीवन का प्रारम्भ होता है। प्रतिदिन प्रातः सन्ध्या के समय श्रमणजीवन की जो आवश्यक (प्रतिक्रमण) क्रिया है, उसकी शुद्धि और आराधना का निरूपण इसमें किया गया है। अतः अंगों के अध्ययन से पूर्व आवश्यक का अध्ययन आवश्यक माना गया है। _ 'अनुयोगद्वार सूत्र' में मंगलाचरण के पश्चात् आवश्यक अनुयोग का उल्लेख मिलता है। यद्यपि आवश्यक सूत्र के पदों की इसमें व्याख्या नहीं की गई है तथापि आवश्यक सूत्र की व्याख्या के बहाने ग्रंथकार ने सम्पूर्ण आगमों के रहस्यों को समझाने का प्रयास किया है। प्रस्तुत सूत्र में ‘आवश्यक' का स्वरूपनिरूपण, आवश्यक के पर्यायवाची शब्द, द्रव्य एवं भाव आवश्यक के सुन्दर स्वरूप-विवेचन के साथ ही आवश्यक के विभिन्न प्रकारों का वर्णन किया गया है। आवश्यक के छह अर्थाधिकार आवश्यक के छह प्रकार बताये गये हैं- १. सामाइयं २. चउवीसत्थओ ३. वंदणं ४. पडिक्कमणं ५. काउस्सग्गो ६. पच्चक्खाणं। ___ 'अनुयोगद्वार सूत्र' में इन षडावश्यक के प्रकारान्तर से छह गुणनिष्पन्न नाम बताए गए हैं। आवश्यक की साधना-आराधना द्वारा जो उपलब्धि होती है अथवा जो करणीय है, उसका बोध इनके द्वारा होता है। इनमें केवल नाम भेद है, अर्थ भेद नहीं है सावज्जजोगविरई, उक्कित्तण गुणवओ य पडिवत्ती। खलियरस जिंदणा, वणतिगिच्छ-गुणधारणा चेव ।। __ -अनुयोगद्वार सूत्र, सूत्र संस्था ७३, गाथा ६ १. सावद्ययोगविरति- हिंसा, असत्य, आदि सावद्य योगों से विरत होना सावद्ययोग विरति है। सामायिक करने वाला साधक अपनी आत्मा को हिंसादि के कारण होने वाली मानसिक दुर्वृत्तियों से मन, वाणी और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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