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________________ 15.17 नवम्बर 2006 | जिनवाणी उस बलि को चारों तरफ फेंकने के बाद साधु को दे और साधु ले तो दोष है, अतिचार है। अमुक साधु आयेंगे तो उन्हें ही दूंगा, ऐसा सोचकर गृहस्थ ने आहार को अलग निकाल रखा हो और वही साधु ले तो स्थापना प्रभृतिका दोष लगता है। इससे बच्चों को और अन्य बाबा संन्यासियों को अन्तराय लगने की संभावना रहती है। ___ जिस आहार में सचित्तादि की शंका हो तो उसकी उपेक्षा नहीं करे और न ही ऐसे आहार को ग्रहण करे। बहन को तकाजा करके कहना 'जल्दी बहरा' अपने हल्केपन को प्रकट करना है, यह भी दोष है।। विकृत दही या वैसा ही अन्य पदार्थ जिसका रस चलित है, वह प्राण भोजन है। ऐसी भिक्षा नहीं लेनी चाहिए, ले तो अतिचार है। गृहस्थ के घर में जो वस्तु दिखाई दे उसकी ही याचना करनी चाहिए, अदृष्ट पदार्थ की याचना करने पर वह भक्तिवशात् अप्रासुक को प्रासुक बना कर देने की चेष्टा करेगा। इससे जीवों की विराधना होगी। ___ गोचरी के विषय में एषणा के ३ भेद जानना साधु के लिए जरूरी हैं - १. गवेषणैषणा २. ग्रहणैषणा ३. परिभोगैषणा। गवेषणैषणा- ग्रहण करने के पहले शुद्धि-अशुद्धि की खोज करना। इसके १६ उद्गमादि दोष हैं, जो गृहस्थ की ओर से साधु को लगते हैं। आहार आदि ग्रहण करते समय शुद्धि-अशुद्धि का खयाल रखना ग्रहणैषणा है। इसके १६ दोष हैं, वे साधु की ओर से साधु को लगते हैं। ये ३२ दोष टालने योग्य हैं। नहीं टाला तो अतिचार है। परिभोगैषणा के शंका आदि १० दोष साधु और श्रावक दोनों की ओर से मिले-जुले लगते हैं। इन ४२ दोषों को छोड़कर भोजन ग्रहण करने से चारित्र रूपी चदरिया शुद्ध रह सकती है। इस गोचरचर्या का पाठ गोचरी लाने और करने के बाद अवश्य बोलना चाहिए। ऐसी बात कवि जी म.सा. वाले श्रमणसूत्र पुस्तक में पढ़ने को मिली। हमें गोचरी संबंधी सभी दोषों से बचने के लिए प्रतिक्रमण करना जरूरी है। ३. स्वाध्याय-प्रतिलेखना सूत्र इसके बाद श्रमण के लिए तीसरे पाठ में प्रेरणा दी गई है कि तू चारों काल स्वाध्याय कर और दोनों संध्याकाल में वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण आदि की प्रतिलेखना अच्छी तरह से कर। यदि इस विषय में अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार लगता हो तो उस पाप का प्रतिक्रमण करना चाहिए। अंग्रेजी में कहा है- “Time is money" समय बहुमूल्य धन है। समय की इज्जत ने ही मानव को महान् बनाया है। समय का तिरस्कार मानव जीवन के विकास का तिरस्कार है। जिस काम के लिए जो समय निश्चित किया गया है, वह काम उसी समय कर लेना चाहिए। शास्त्रों में कहा- “काले कालं समायरे।' जैसे एक सेनापति युद्ध के मोर्चे पर सदा सजग रहता है और शत्रुओं से लोहा लेता है ऐसे ही कर्मशत्रुओं से लोहा लेने के लिए साधक को हमेशा सजग रहना चाहिए। उत्तराध्ययन सूत्र के २९वें अध्ययन में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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