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________________ 15,17 नवम्बर 2006 जिनवाणी, __133 दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में प्रतिक्रमण विवेचन डॉ. अशोक कुमार जैन दिगम्बर परम्परा में भी प्रतिक्रमण का विधान है। आचार्य वट्टकेर विरचित मूलाचार ग्रन्थ के सातवें अधिकार में षडावश्यकों का १९० गाथाओं में विवेचन है । अनगार धर्मामृत आदि ग्रन्थों में भी प्रतिक्रमण का प्रतिपादन है । दिगम्बर परम्परा के श्रमणाचार में तो प्रतिक्रमण का विधान है ही, श्रावकाचार में भी प्रावधान है। डॉ. जैन ने अपने आलेख में संक्षेप दिगम्बर-परम्परा में मान्य प्रतिक्रमण के स्वरूप से परिचित कराया है। -सम्पादक जैन-परम्परा में आचार्यों द्वारा आचार-विषयक अनेक ग्रन्थों की रचना की गयी। उनमें श्रमण और श्रावक की चर्या के संबंध में अनेक नियमों का विधान निरूपित है। श्रमणाचार के षडावश्यकों में प्रतिक्रमण का भी विस्तार से वर्णन उपलब्ध है। प्रतिक्रमण स्वरूप मूलाचार में प्रतिक्रमण के स्वरूप के बारे में लिखा है दव्वे वेत्ते काले भावे य कयावराहसोहणयं । जिंदणगरहणजुत्तो मणवचकायेण पडिक्कमणं ।। - मूलाचार १/२६ निन्दा और गर्हापूर्वक मन-वचन-काय के द्वारा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के विषय में किये गये अपराधों का शोधन करना प्रतिक्रमण है। अनगार धर्मामृत में लिखा है मिथ्या मे दुष्कृतमिति प्रायोऽपायैर्निराकृतिः । कृतस्य संवेगवता प्रतिक्रमणमागसः।। -अनगार धर्मामृत ७/४७ संसार से भयभीत और भोगों से विरक्त साधु के द्वारा किये गये अपराध को- “मेरे दुष्कृत मिथ्या हो जावें, मेरे पाप शांत हों"- इस प्रकार के उपायों के द्वारा दूर करने को प्रतिक्रमण कहते हैं। प्रतिक्रमण के अंग प्रतिक्रमण के तीन अंग हैं१. प्रतिक्रामक- प्रमाद आदि से लगे हुए दोषों से निवृत्त होने वाला अथवा जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव विषयक अतिचारों से निवृत्त होता है वह (साधु) प्रतिक्रामक' कहलाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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