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________________ ३२ / साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री इत्यादि पंक्तियों से यह पता चलता है कि यशोविजयजी के मन में आनंदघनजी के प्रति कितना आदर था । ऐ ही आज आनंद भयो मेरे, तेरो मुख नीरख, रोम रोम शीतल भया अंगो अंग आनंदघनजी के दर्शन का उनके जीवन पर कितना अधिक प्रभाव पड़ा, यह उन्होंने नम्रतापूर्वक दर्शाया है। आनंदघन के संग सुजसही मिले जब, तब आनंदसम भयो 'सुजस' पारस संग लोहा जो फरसत कंचन होत की ताके कस इस प्रकार उनमें पराकाष्ठा की गुणानुरागिता के दर्शन होते हैं । उदार दृष्टि - - उपाध्याय यशोविजयजी के व्यक्तित्त्व की सबसे बड़ी विशेषता उनका उदारवादी दृष्टिकोण है। वे दुराग्रहों से मुक्त और सत्य के जिज्ञासु थे। उन्होंने दिगम्बराचार्य समंतभद्रकृत अष्टसह, पंतजलिकृत 'योगसूत्र' मम्मटकृत 'काव्यप्रकाश’ जानकीनाथ शर्मा कृत न्यायसिद्धान्त मंजरी इत्यादि ग्रंथों पर वृत्तियाँ लिखीं तथा योगवासिष्ठ, उपनिषद्, श्रीमद्भगवत्गीता में से आधार दिए हैं। इस प्रकार अनेक उदाहरण हैं, जिनमें यशोविजयजी की उदारता परिलक्षित होती है। श्रुतभक्ति - उपाध्याय यशोविजयजी की श्रुतभक्ति भी अनुपम थी। वे दिन-रात श्रुतसागर में ही गोता लगाते रहते । यशोविजयजी ने तर्क और न्याय का गहरा अभ्यास किया था। इनके जैसे समर्थ तार्किक को मल्लवादीसूरिकृत द्वादशारनयचक्र जैसा ग्रंथ पढ़ने की प्रबल इच्छा हो, यह स्वाभाविक है; परंतु यह ग्रंथ इन्हें उपलब्ध नहीं हुआ। बहुत समय बाद पाटण में सिंहवादी गणि द्वारा नयचक्र पर अठारह हजार श्लोकों में लिखी हुई टीका की एक हस्तप्रति मिली। यह हस्तप्रति जीर्ण-शीर्ण हालत में थी और थोड़े दिनों के लिए ही मिली थी। यशोविजयजी ने विचार किया कि मूल ग्रंथ मिलता नहीं हैं। यह टीका भी नष्ट हो गई, तो फिर कुछ नहीं रहेगा, इसलिए नई हस्तप्रति तैयार कर लेना चाहिए, परंतु इतने कम दिनों में यह काम कैसे संभव हो। उन्होंने अपने गुरुमहाराज को यह बात कही । समुदाय के साधुओं में भी बात हुई । नयविजयजी, यशोविजयजी, जयसोमविजयजी, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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