SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 339
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ३३३ लिए वन में मारा-मारा फिरता है और रात दिन उसके लिए तड़प तड़प कर अपने प्राण गवां देता है; वैसे ही मनुष्य भी आज सुख को प्राप्त करने के लिए आकाश-पाताल एक कर रहा है। उसे यह पता नहीं चल रहा है कि जिसे वह बाहर ढूंढ रहा है, वह तो उसकी आत्मा में ही है। योगसाधना के द्वारा साधक बाहर की दुनिया को छोड़कर अन्दर विचरण करता है। उ. यशोविजयजी ने ज्ञानसार में कहा हैं- "बाह्य प्रवृत्तियाँ नहीं होने पर महापुरुष अपने अन्तर में ही रही हुई सर्व समृद्धियों का बोध करते हैं।" ६२३ वह ज्ञानयोग द्वारा सत्य को समझता है, क्रियायोग द्वारा सत्य का आचरण करता है और भक्तियोग द्वारा परमात्मास्वरूप (आत्मस्वरूप) में लीन होता है और समत्वयोग को प्राप्त करता है, जिससे साधक को यह अनुभव होने लगता है कि जो कुछ बाहर दिखाई देता है, वह सुख नहीं सुखाभास है। जिस सुख से आत्मानंद की अनुभूति हो, जो सुख स्वाधीन हो, अविनाशी हो, वह सुख सच्चा है। इस प्रकार बाह्य पदार्थों में जो सुख की भ्रान्ति थी, वह नष्ट हो जाती है। उ. यशोविजयजी कहते हैं- “ब्रह्म की सृष्टि तो बाह्य जगत रूप है और बाह्य की अपेक्षा पर अवलम्बित है, जबकि योगसाधक मुनि की अन्तरंग गुण सृष्टि तो अन्य की अपेक्षा से रहित है, अतः यह अधिक उत्कृष्ट है।" ५२० योगी योगसाधना द्वारा अपने अन्दर ही सुख का दिव्य खजाना पाकर संतुष्ट हो जाता है। बाह्य पदार्थों में सुख की भ्रमणा टूट जाती है और वह अनासक्तभाव को प्राप्त कर लेता है। २. कषायों का क्षय - योग एक आध्यात्मिक साधना है, आत्मविकास की एक प्रक्रिया है। ज्ञानार्णव३२५ में बताया गया है कि कषाय पर विजय प्राप्त करने का साधन इन्द्रियजय है, इन्द्रियों को जीतने का उपाय मन की शुद्धि है, मन-शुद्धि का साधन है-समत्वभाव की साधना। इस प्रकार समत्वभाव की प्राप्ति योगसाधना की मुख्य विशेषता है। जैसे-जैसे साधक योगसाधना में आगे बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे उसका अज्ञान दूर होता जाता है और उसे उसे ज्ञानदृष्टि प्राप्त होती है। जिससे वह समस्त विश्व को ज्ञातादृष्टा भाव से देखता है और उसके कषाय मन्द होते जाते हैं। उ. यशोविजयजी ने योगियों की विशेषता बताते हुए कहा है ५२३. बाह्यदृष्टिप्रचारेषु मुद्रितेषु महात्मनः अन्तरेवाव भासन्ति स्फुटाः सर्वाः समृद्धय।।१।। सर्व-समृद्धि -अष्टक-२०, ज्ञानसार या सृष्टिब्रह्मणो बाह्या, बाह्यापेक्षावलम्बिनी। मुनेः परानपेक्षाऽन्तर्गुणसृष्टिस्ततोऽधिका।।७।। - सर्व-समृद्धि-अष्टक-२०, ज्ञानसार ६२५. ज्ञानार्णव सर्ग-३, गाथा -६, १०, १७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy