SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 222
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१६/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री "काम रागस्नेहागौ, ईषत्करनिवारणौ। दृष्टिरागस्तु पापीयान् दुरच्छेदः सतामपि ।।२७० कामराग और स्नेहराग-ये दोनों सरलता से मिटाए जा सकते हैं, किन्तु दृष्टिराग अर्थात् विचारों के प्रति अनुरक्ति को मिटा पाना सहज, सरल नहीं है। दृष्टि का अनुराग भयंकर बंधन है। जिन्होंने घर-द्वार छोड़ दिया, जिन्होंने, परिवार का स्नेह तोड़ दिया, वे सब कुछ छोड़ने पर भी विचारों के अनुराग को नहीं तोड़ पाए। विचारों के प्रति तटस्थ रहना सहज नहीं है। अनेकान्त के बिना तटस्थता नहीं आती है। उ. यशोवियजजी कहते हैं माध्यस्थ्यसहितं ह्येयकपदज्ञानमपि प्रमा। शास्त्रकोटिर्वथैवान्या तथा चोक्तं महात्मना।। ७३।।५०० माध्यस्थ भाव के रहने पर शास्त्र के एक पद का ज्ञान भी सफल है, अन्यथा करोड़ों शास्त्र व्यर्थ हैं; क्योंकि जहाँ आग्रह-बुद्धि होती है, वहाँ विपक्ष में निहित सत्य का दर्शन संभव नहीं होता है। उ. यशोविजयजी ने ज्ञानसार में कहा है- “एकांगी दृष्टिकोण रखकर वाद और प्रतिवाद करने वाले तील को पील रहे घानी के उस बैल के समान हैं, जो सुबह से शाम तक सतत चलने पर भी एक कदम भी आगे नहीं बढ़ता है। वादी-प्रतिवादी अपने पक्ष में कदाग्रह रखने के कारण तत्त्व को प्राप्त नहीं कर सकते हैं।"३७२ ।। डॉ. सागरमल जैन ३७३ लिखते हैं कि वस्तुतः शाश्वतवाद, उच्छेदवाद, नित्यवाद, अनित्यवाद, भेदवाद, अभेदवाद, द्वैतवाद, अद्वैतवाद, हेतुवाद, अहेतुवाद, नियतिवाद, पुरुषार्थवाद आदि जितने भी दार्शनिक मत-मतान्तर हैं, वे सभी परमसत्ता के विभिन्न पहलू से लिए गए चित्र हैं और आपेक्षिक रूप से सत्य हैं। द्रव्यदृष्टि और पर्यायदृष्टि के आधार पर इन विरोधी सिद्धान्तों में समन्वय किया जा सकता है, अतः एक सच्चा स्याद्वादी किसी भी दर्शन से द्वेष नहीं करता है, वह सभी दर्शनों का आराधक होता है। ३७० ३७१ . वीतरागस्तोत्र ६/१० -आ. हेमचन्द्राचार्य अध्यात्मोपनिषद् १/७३ - उ. यशोविजयजी ર૭ર वादांश्च प्रतिवादांश्च वदन्तो निश्चितास्तथा। तत्त्वान्त नैव गच्छन्ति तिलपीलक्वद्गतौ।७४।। (१) अध्यात्मोपनिषद् (२) ज्ञानसार डॉ. सागरमल जैन-अभिनन्दन ग्रंथ -स्याद्वाद और सप्तभंगी एक चिन्तन-पृ. १६३, डॉ. सागरमल जैन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy