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________________ १०/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री दृष्टि में जो व्यक्ति मात्र ज्ञान से मोक्ष प्राप्त करने की बात करते हैं, वे मुख में कवल डाले बिना ही तप्ति की आकांक्षा करते है। क्रियायोग की आवश्यकता पर प्रकाश डालते हुए छः आवश्यकों का वर्णन किया गया है। साथ ही शुद्ध क्रिया और अशुद्ध क्रिया, शुभ व्यवहार अशुभ व्यवहार ज्ञान होने पर क्रिया की आवश्यकता, क्रियायोग का प्रयोजन, ज्ञान का परिपाक क्रिया में, क्रियायोग की साधना विधि, क्रिया का परिपाक असंग अनुष्ठान में आदि बिन्दुओं पर गहन चिंतन प्रस्तुत किया है। सप्तम अध्याय में साम्ययोग की साधना का वर्णन करते हुए साम्ययोग का स्वरूप, समत्व आत्मस्वभाव, विषमता के कारण, ममता के विभिन्न रूप, राग-द्वेष और कषाय, समता के तीन स्तरः-सम, संवेग निर्वेद, समता और मध्यस्थभाव साम्ययोग और सामायिक, ज्ञानयोग भक्तियोग और क्रियायोग का साम्य में समन्वय, योग साधना के परिणाम-सुख भ्रांति का निराकरण कषायों का क्षय, अनाग्रह दृष्टि का विकास, साक्षी भाव का विकास, ज्ञानाहंकार का विलय आदि विषयों पर विस्तार से चर्चा की है। अष्टम अध्याय आत्मा के आध्यात्मिक विकास से संबधित है। आत्मा ही परमात्मा है किंतु जीव अपने परमात्मा स्वरूप को भूल कर मोह और अज्ञान के अधीन हो संसार के सुखों में मग्न है। अतः भ्रम जाल रूपी सांसारिक सुखों से प्रीति कम करके अनंत ज्ञानादि आत्मीय गुणों पर प्रीति बढ़े तथा आत्मा परमात्मपद की सर्वोच्च स्थिति को प्राप्त करे इस लक्ष्य से आत्मा की तीन अवस्थाओं का चित्रण तथा चौदह गुणस्थान की अवधारणा उनका स्वरूप, गुणस्थान के आधार पर अध्यात्मिक विकास का क्रम तथा चौदह गुणस्थानों का त्रिविध आत्मा से सम्बन्ध आदि पर विशद विवेचन प्रस्तुत किया गया है। ... नवम अध्याय उपसंहार के रूप में है। इसके अंतर्गत आधुनिक वैश्विक समस्याओं के निराकरण में अध्यात्मवाद का क्या अवदान है? विश्व शांति के लिए अध्यात्मवाद की क्या उपयोगिता है? इन प्रश्नों के समाधान खोजने का प्रयास किया गया है। विश्व की वर्तमान स्थिति पर दृष्टिपात करें तो हम पायेंगे कि आज पूरा विश्व अनेक समस्याओं से जूझ रहा है, हमने निम्नलिखित समस्याओं पर प्रकाश डालते हुए उनका अध्यात्मवाद से समाधान प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है। उपभोक्तावादी संस्कृति का विकास उसके दुष्परिणाम, बढ़ता हुआ प्रदूषण शस्त्रों की प्रतिस्पर्धा, युद्ध का उन्माद, मानसिक तनाव, अपराधों की वृद्धि नशाखोरी, सम्प्रदायवाद, अध्यात्मविहीन राजनीति आदि। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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