SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साधना की भूमिकाएं६७ मोह का अंधकार विलीन होता चला जाता है । अन्यत्व की भावना के जागरण के साथ अनेक ग्रंथियां खुल जाती हैं। शरीर को अपना मानकर जितने तनाव पैदा किए थे, जितनी ग्रंथियों का पात हुआ था, वे सारे तनाव मिट जाते हैं, वे सारी ग्रंथियां खुल जाती हैं । देहाभिमान : कष्टों का जनक शरीर में बीमारी हुई, आदमी रोने लग जाता है । शरीर को थोड़ा-सा कष्ट हुआ, आदमी दीन बन जाता है ! आप सोचते होंगे कि कष्ट के कारण ऐसा होता है । यह सच नहीं है । कष्ट के कारण ऐसा नहीं होगा । यह होता है ग्रंथियों के कारण, संस्कार के कारण । हमारा देहाभिमान इतना पुष्ट है कि हमने मान लिया कि शरीर को कुछ भी कष्ट नहीं होना चाहिए । इस मान्यता के कारण ही यह सब होता है । जिन व्यक्तियों ने इस मान्यता को तोड़ दिया, देहाभिमान के टुकड़े-टुकड़े कर दिए, हजारों कष्टों के आने पर भी उनकी मधुर मुसकान को कभी नहीं मिटाया जा सकता। उनके चेहरे पर कभी दीनता का भाव नहीं उभरता । वे कभी खिन्न नहीं बनते । वे बहुत बड़ी शारीरिक वेदना के होने पर भी उसकी अवज्ञा कर देते हैं, उस ओर ध्यान ही नहीं देते । शरीर को कष्ट होता है, इसलिए आदमी नहीं रोता । किन्तु मेरे शरीर को कष्ट नहीं होना चाहिए, यह मान्यता उसे रुलाती है | इसी मान्यता के कारण आदमी रोता है। जब अन्यत्व-भावना पुष्ट हो जाती है तब 'मेरे शरीर को कष्ट नहीं होना चाहिए' - यह ग्रंथि खुल जाती है, ग्रंथि समाप्त हो जाती है । फिर कष्ट होता है तो वह द्रष्टा की भांति देखता है कि शरीर में कुछ हो रहा है। कुछ घटना घटित हो रही है । वह केवल द्रष्टा होता है, संवेदक नहीं । एक व्यक्ति आया । वह ध्यान का अभ्यास कर रहा था । मैंने पूछा - "ध्यान का क्रम चल रहा है ?” उसने कहा- "दर्द हो रहा था, इसलिए अभी बंद कर रखा है ।" मैंने कहा - " जहां दर्द है, उसी पर ध्यान करो । उस दर्द पर ही मन को एकाग्र कर दो ।" उसने वैसा ही किया | पांच-दस दिन तक क्रम चला। जैसे-जैसे ध्यान करता गया, कष्ट का भान ही समाप्त हो गया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002746
Book TitleJain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy