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________________ अंतर्दृष्टि (२) विवेक चेतना और कायोत्सर्ग जब अंतर्दृष्टि खुलती है तब 'मैं शरीर नहीं हूं, शरीर मेरा नहीं है' यह विवेक-चेतना जागृत होती है । इस विवेक-चेतना के जागृत हो जाने पर कायोत्सर्ग की भूमिका दृढ़ होती है, कायोत्सर्ग सधता है । जब तक शरीर का अभिमान नहीं छूटता, शरीर मेरा है-यह भान नहीं छूटता तब तक कायोत्सर्ग नहीं सध सकता | कायोत्सर्ग का अर्थ केवल प्रवृत्ति का विसर्जन नहीं है, केवल शिथिलता नहीं है । शिथिलता और प्रवृत्ति का विसर्जन भी कायोत्सर्ग का एक अर्थ है, किंतु इतना ही अर्थ नहीं है | कायोत्सर्ग का मूल अर्थ है-शरीर का अभिमान छूट जाना, शरीर का ममत्व छूट जाना । देहाभिमान का न होना कायोत्सर्ग है | जब तक 'शरीर मेरा है'-यह भान बना रहता है तब तक कायोत्सर्ग नहीं सधता । जब तक शरीर की पकड़ रहती है तब तक कायोत्सर्ग नहीं हो सकता । शारीरिक शिथिलता से स्वाभाविक तनाव समाप्त हो जाता है किंतु मानसिक तनाव समाप्त नहीं होता। जब तक मानसिक ग्रंथि नहीं खुलती तब तक कायोत्सर्ग नहीं हो सकता । कायोत्सर्ग के लिए दोनों बातें आवश्यक हैं-शारीरिक तनाव का विसर्जन और मानसिक तनाव का विसर्जन | शारीरिक तनाव का समाप्त होना और मानसिक ग्रंथियों का खुल जाना ही कायोत्सर्ग का सधना है । जब तक 'शरीर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002746
Book TitleJain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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